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काकासाहेब के बाल भी सुन्दरम् ने काटे थे ! अनेक संस्मरण उन्होंने लिखे हैं । श्री उमाशंकर जोशी विधिपूर्वक काकासाहेब के विद्यार्थी नहीं थे, फिर भी उनके विकास में काकासाहेब का कितना समृद्ध योग है, यह उमाशंकर भाई की '३१ की झांकी' पुस्तक से प्रतीत होता है ।
गुजराती साहित्य के ललित निबंध के सर्जकों में काकासाहेब का स्थान चिरस्थायी है । 'रखडवानो आनंद' और 'जीवननो आनंद' इन दो पुस्तकों के निबंधों में लेखक के समृद्ध व्यक्तित्व का प्रभाव आनंद देता । इस व्यक्तित्व ने संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य का आकंठ पान किया है । जन्मजात् सात्विक प्रकृति-प्रेम उसकी रग-रग में व्याप्त है, जिसने भारत की संस्कृति का संदेश आत्मसात् किया है और जो हमेशा अभिनव दृष्टि से विचार करनेवाला है - ऐसे एक सर्जक व्यक्तित्व का दर्शन मिलता है । 'ओतरानी दीवालों (उत्तर की दीवारें) में जेल के अनुभव हैं । 'जीवन के काव्य' में हमारे उत्सवों का नवीन अर्थ वे देते हैं । 'जीवनविकास' में शिक्षण-विषयक लेख दिये हैं । 'जीवन -भारती' में साहित्य-विवेचन है । काकासाहेब की इन सारी पुस्तकों में 'जीवन' शब्द मात्र शोभा का नहीं, अर्थ सूचक है । काकासाहेब जीवन-धर्म साहित्यकार हैं । उन्होंने स्वयं लिखा है कि वह 'कला के लिए कला' के वाद को नहीं मानते, 'जीवन के लिए कला' को मानते हैं, क्यों कि 'मात्र कला के लिए कला' तो कई बार 'विरूपता के लिए कला' हो जाती है । स्मरण रहे कि अपने लेखों में काकासाहेब कभी उपदेशक नहीं बने, सौन्दर्यद्रष्टा ही रहे हैं। विवेचन में भी उन्होंने इस सुरुचिपूर्ण अभिगम को ही प्राधान्य दिया है ।
और काकासाहेब की भाषा ? संस्कृत के संस्कारोंवाली और साथ ही अपनी कहावतों और रूढ़ प्रयोगों का स्वाभाविक विनियोग करनेवाली प्रभावशाली जीवंत गुजराती भाषा है । ऐसी भाषा का प्रयोग करके उन्होंने 'सवाई गुजराती' के विरुद को सार्थक किया है ।
१९६० में 'गुजराती साहित्य परिषद्' के बीसवें सम्मेलन के वह अध्यक्ष रहे । और १६६१ में जब उन्होंने ७६ वर्ष पूरे किये तब उनकी षष्टि पूर्ति के उपलक्ष्य में तैयार किया गया 'कालेलकर अध्ययन-ग्रंथ' उन्हें अर्पण किया गया । उनकी पुस्तक 'जीवन-व्यवस्था' को अकादमी का पुरस्कार मिला ।
Saraiसाहेब जैसों के लिए ही 'विभूति' शब्द का उपयोग हो सकता है। गुजराती साहित्य की वे एक महान साहित्यिक प्रतिभा हैं । काकासाहेब के जीवन-कार्य में से अनेक लेखकों को प्रेरणा मिली है। उमाशंकर जोशी ने अपना 'गंगोत्री' काव्य-संग्रह काकासाहेब को अर्पण करते हुए जो पंक्तियां लिखी हैं, उसमें अनेक गुजराती साहित्य सेवियों की भावना की प्रतिध्वनि है ।
अजा
आव्यं भरू छरणु के 1 तव पदे प्रवासी ! तें एने हृदय जगवी
सिंधु करणा ।
( अनजाना बहकर आया एक मुग्ध झरना तुम्हारे चरणों तक, हे प्रवासी ! तुमने उसके हृदय में सिंधु की रटना जगा दी । ) O
व्यक्तित्व : संस्मरण / ७७