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________________ संपत् और आसुरी संपत् के बारे में वह बोल रहे थे । उनका प्रवचन पूरा हुआ। देवी संपत् और आसुरी संपत् के बारे में सोचते-सोचते कइयों ने गीता का अध्ययन शुरू किया । गीता से प्यार पैदा हुआ और उसके द्वारा काकासाहेब से भी जो प्यार पैदा हुआ वह हमेशा के लिए। उनकी प्रवास की पुस्तकें पढ़कर बहुतों ने घुमक्कड़ होने की प्रेरणा पायी है। अनेक व्यक्तियों ने उनको मार्ग-दर्शक मानकर उनके जरिये प्रवास भी किये हैं और उनके विचारों पर आचरण भी किया है। काकासाहेब एक समाज अन्वेषक समाजशास्त्री हैं। उन्होंने बहुतों के उजड़े संसार को बसाया है और कई उजड़ते संसारों को संवारा है। कइयों की शादियां की हैं। अनेक अन्तर्जातीय और अन्तर्धार्मिक विवाहों को आशीर्वाद दिये हैं। अंत्योदय से लेकर समाज के सब कमजोर पहलुओं को मजबूत बनाने की कोशिश काकासाहेब ने की है। इसमें कार्य करनेवाले कई सेवकों की उलझनें उन्होंने सुलझायी हैं । कइयों ने समाज-सेवा की दीक्षा उनसे ही पाई है। "आदिवासी क्षेत्र में सेवा करने का पहला पाठ मैंने काकासाहेब से सीखा,"ऐसा स्व० धर्मदेव शास्त्री हमेशा कहते थे। गुजरात के बबलभाई काकासाहेब की ही देन हैं। ऐसे कई सेवक भारत के कोने-कोने में उनकी प्रेरणा से बसे हैं। यह जो सेवकों का प्यार है, वह प्रेम की मजबूत डोर से बंधा है। वह कच्चा धागा नहीं है। काकासाहेब ने विपुल साहित्य का निर्माण किया है और उसके पाठक बहुत बड़ी संख्या में हैं। यह सफल साहित्यसेवी के साहित्य का द्योतक है। यह तो काकासाहेब के साहित्य संबंधित बात रही, लेकिन उनकी सफलता इसके अतिरिक्त है। उन्होंने साहित्य के लिए साहित्य नहीं लिखा। उन्होंने जो कुछ किया, वह लिखा। उसमें समाज शिक्षित करने की तमन्ना थी। काकासाहेब के मन में कोई विचार तरंगित होने लगते हैं तो वे समाज को समर्पित किये बिना रह नहीं सकते । आपका मानस शिक्षक का है। विद्या-वितरण उनका कार्य है। इसके द्वारा दुनिया को विकसित करने का काम जो उन्होंने किया, वह बड़े प्यारे आचार्य का है। काकासाहेब बड़े प्यारे आचार्य हैं। उनके प्रेम की सरिता पुरुषोत्तम ना० गांधी 00 वेदकालीन ऋषिकुल-परंपरा की साक्षात् मूर्ति यानी पू० काकासाहेब कालेलकर-आध्यात्मिकता जिनके जीवन की नींव में है, ऐसे तत्वचिंतक और अंतर्द्रष्टा का जीवन, समाज के जीवन के अनेकविध क्षेत्रों में सदा प्रकाश फैलाता रहा है । ६५वें वर्ष में पहुंचा हुआ उनका शरीर भले ही शिथिल हो गया हो, श्रवण-शक्ति भले ही लगभग नष्ट हो गई हो, किन्तु मन की प्रसन्नता और मौलिक विचारधारा क्षीण नहीं हई है। यह उनकी जीवन-भर की निष्काम साधना का फल है। गीता के निष्काम कर्म और अनासक्ति को उन्होंने जीवन में पचाया है, ऐसा कहा जा सकता है। संत के प्राप्य चित्त की प्रसन्नता उनमें स्थित है। ___अध्ययन और अध्यापन उनके जीवन-कार्य के मध्यबिन्दु रहे हैं। क्रांतिकारी विचारधारा को धारण करनेवाले युवा दत्तात्रेय ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह शिक्षण हो या साहित्यिक क्षेत्र हो, राजकीय क्षेत्र व्यक्तित्व : संस्मरण | ७३
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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