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चुका था। उसमें भी प्रेरणा का प्रचार करने का अवसर वह क्यों छोड़ते ? जीवन में पाये संगीत के ज्ञान का स्रोत उन्होंने उस सम्मेलन में पहुंचाया। अनेक संगीतकारों को भी प्रेरणा मिली।
घुमक्कड़ काकासाहेब ने सारे जगत् का प्रवास किया है । भारत की चारों दिशा में वह अनेक बार घूमे हैं, इसकी गिनती नहीं हो सकती। वह शहरों में घूमे, दूर-दूर के देहातों में भी घूमे। वह सुधरे हुए समाज में घूमे और सुदूर रहनेवाले आदिवासियों में भी घूमे । वह साहित्य सेवियों में घूमे और निरक्षरों में भी घूमे । घूमना उनका स्वभाव था । "स्वभावो दुरतिक्रमः ।" स्वभाव का अतिक्रमण नहीं हो सकता। लेकिन उनका घूमना स्वाभाविक होते हुए भी संशोधक था और प्रचारक भी था । पृथ्वी के अन्य भागों में वह कई बार गये । लेकिन जापान तो यह सात बार हो आये । प्रवास से लौटकर किताबें लिखीं। उससे उनका 'मिशन' पूरा नहीं हुआ । समन्वय उनके जीवन का मिशन है। भारत-जापान समन्वय के लिए वह कई बार वहां गए । वहां के साहित्य सेवियों से मिले धार्मिक पंथों का अध्ययन किया। वहां के समाज का परिशीलन किया। वहां के आदिवासियों तक पहुंचे। वहां के धर्मज्ञों का परिचय किया । विद्यार्थियों से मिले । अपने छात्र जापान भेजे । जापान के भारत में लाये । अपनी और उनकी भाषा का आदान-प्रदान किया। ऐसे कई तरह के प्रयास किए। यही उनके घूमने का चरम उद्देश्य रहता है। उनका लिखा प्रवास - साहित्य भी काफी समृद्ध है। उसे पढ़ने से भूगोल और समाज का अच्छा ज्ञान मिलता है। लेकिन उनके लेखन में सर्वोदय विचार अनुस्यूत रहता है। उससे उनका सारा साहित्य प्रेरक और प्रभावी प्रचारक होता है।
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अपने बचपन में मैंने 'कालेलकर' का नाम कभी सुना भी वहीं था। १९३० में जब जीवन-संघ में उनके प्रथम दर्शन हुए तब उनको गुजराती में बोलते सुना। मालूम हुआ, आप गुजराती हैं। गुजरात विद्यापीठ की पढ़ाई के वास्ते नवजीवन संघ में से उन्होंने मुझे चुना। मैं उनके साथ अहमदाबाद चला गाड़ी में वह मेरे साथ मराठी में बोलने लगे। मैंने मन में सोचा, वह मराठी भी जानते हैं। हिन्दी भी वह बोल लेते हैं । लेकिन उनकी मातृभाषा मराठी है और वह महाराष्ट्रीय हैं, यह ज्ञात होने में थोड़ी देरी लगी । उस समय उनके दिल में गुजरात के जितना ही महाराष्ट्र के लिए भी सम्मान था । महाराष्ट्र में भी उनके काफी छात्र थे । स्वराज्य आंदोलन में सब लगे हुए थे। वे १९३०-३१ के नमक सत्याग्रह के दिन थे। समूचा विद्यापीठ आंदोलन में लगा हुआ था । हमारे जैसे दो-चार छात्र ही विद्यापीठ में रहते थे । दो-तीन महीने के अंदर विद्यापीठ में 'स्वराज्य विद्यालय' शुरू हुआ । उसमें गुजरात के बहुत-से स्वयंसेवक शरीक हुए। विद्यापीठ भर गया । फिर हलचल मची। इस अवधि में काकासाहेब के तनिक निकट परिचय में आने का मौका मिला। मैंने देखा, वह बड़े प्यारे पिता हैं। उनमें वात्सल्य भरा हुआ है। वह जिस वात्सल्य से विविध विषयों के लिए छात्रों में अनुराग पैदा करते हैं, उससे उनके स्वयं के बारे में भी छात्रों का प्यार अनायास बढ़ता रहता है। कितना खिलाया, कितना पिलाया, कितनी प्यार की बातें कीं, कितनी अंगत समस्याओं में सहायता की, इसपर से प्यार का लेखा-जोखा करना संभव नहीं है। लेकिन ऐसा भी प्यार हमने उनके पास से पाया है । किसी विषय में या समस्याओं को लेकर पास आये व्यक्तियों को प्यार से समझाना, यही सच्चा प्रेम है। काकासाहेब ने असंख्य व्यक्तियों को अनेक विषयों में प्रविष्ट किया है, उनमें प्यार जगाया है। अनेक समस्याओं के सुलझाने में हाथ बंटाया है। यह जो प्यार का आदान-प्रदान है, वह बड़े महत्व का है। इससे लेनेवाले और देनेवाले भी एक-दूसरे के निकट आ जाते हैं। मां जैसा प्यार काकासाहेब के पास से कइयों ने पाया है। काकासाहेब को मालूम नहीं है कि उनके कितने प्यारे लोग दुनिया में हैं; और उनको प्यार करनेवाली दुनिया को भी भान नहीं है कि वह उनको कितना प्यार करती है। काकासाहेब ने आध्यात्मिक और भौतिक दोनों क्षेत्रों में अनेकों का प्यार जगाया है। एक बार वह गीता का प्रवचन कर रहे थे । सोलहवां अध्याय था । देवी ७२ / समन्वय के साधक