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हो, या समाज सुधार का कार्य हो हर एक क्षेत्र में उन्होंने सक्रिय कार्य द्वारा, असंख्य व्याख्यानों द्वारा अनगिनत लेखों तथा अनेकानेक पुस्तकों के लेखन द्वारा मौलिक विचारों को प्रस्तुत करके क्रांति का सर्जन किया है।
वे विद्यार्थी जगत के आदणीय अध्यापक रहे, प्राध्यापक हुए आचार्यपद प्राप्त किया और अनेकों के दिल में गुरु के स्थान पर विराजमान हुए ।
अपना अध्ययन पूरा होते ही विदेशी राज्य की पकड़ में से देश को मुक्त कराने के लिए हिंसक क्रांति के मार्ग पर कदम रखा, किन्तु जब इस मार्ग पर सफलता न मिलने की प्रतीति हुई तो उससे मुड़कर दूसरा मार्ग अंगीकार किया। एक संन्यासी की भांति उन्होंने सारे देश का परिभ्रमण और उत्तुंग हिमालय के शिखरों का विकट प्रवास किया है। साधना - मार्ग में भी जीवन में कम उपलब्धियां नहीं हुई हैं। जब काकासाहेब शान्तिनिकेतन में गुरुदेव टैगोर के पास रहे थे, पू० गांधीजी अफ्रीका से आकर शान्तिनिकेतन गये थे तब बापू की अल्प भेंट में ही उनकी ओर आकर्षित हुए और शांतिनिकेतन छोड़कर साबरमती आश्रम में आकर गांधीजी के साथी बने, और शिक्षण कार्य हाथ में ले लिया । आश्रम के हम सभी छोटे-बड़े बच्चों को एक और सहृदयी गुरु प्राप्त हुए। खूबी तो यह थी कि एक छोटे-से-छोटे बालक से लेकर युवा विद्यार्थी तक हरएक में उनको रस रहा। उनकी ज्ञान प्राप्त कराने की अनोखी ही पद्धति रही। छोटे बच्चों को उनकी जरूरत के अनुसार रुचिपूर्ण ज्ञान मिलता तो बड़े विद्यार्थियों को उनकी कक्षा का रसप्रद शिक्षण प्राप्ति होता था, और बड़े उच्च शिक्षण तक पहुंचे हुओं को काकासाहेब में खुले ज्ञान भंडार से जितना दे सकें उतना ज्ञान दे देने की उत्कट भावना हमेशा दीख पड़ती थी। हर एक के दिल को उन्होंने जीत लिया था । सबके वे प्रिय आचार्य बन गए। जीवन के मार्गदर्शक बने और सबको ज्ञान प्राप्त करने की कला सिखाई। निसर्ग प्रेमी काकासाहेब ने पशु-पक्षी, फूल, वृक्ष, नदीसरोवर, पहाड़, आकाश के तारे आदि सभी में विद्यार्थियों की अभिरुचि जगाई, जितना ग्रहण कर सकें, उतना ज्ञान दिया।
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तदुपरांत उनका अनोखा वात्सल्य हमें मिला। उन्होंने आश्रम के कठोर नियमों और भरसक दिनचर्या का काम विद्यार्थियों के ध्यान में भी न आने दिया। रहन-सहन की छोटी-बड़ी मुश्किलें और मानसिक उलझनों को सुलझाने के उपाय हमें उनके पास से मिलते थे ।
सहृदयता से सबकी बातें सुनना, यह उनका अनोखा गुण था । वे सिर्फ आचार्य ही नहीं, बल्कि विद्यार्थीसमाज के कुलगुरु बने ।
कई भाषाओं के ज्ञाता काकासाहेब मूलतः महाराष्ट्र के होते हुए भी गुजराती भाषा पर उनका कितना अभूतपूर्व अधिकार है, यह बात गुजरात की जनता से छिपी नहीं है। उनकी ज्ञान गंगा बहाने का मुख्य माध्यम गुजराती भाषा बनी रही। गुजराती भाषा को काकासाहेब ने विशिष्ट शैली से अधिक सरल तथा रोचक बनाई और गुजराती भाषा में अपना ज्ञान परोसकर गुजराती साहित्य को विशेष रूप से समृद्ध बनाया।
भूगोल, खगोल और संस्कृत के प्रति उनका विशेष पक्षपात रहा। खूबी तो यह है कि कुछ अरसिक गिने जानेवाले विषयों को भी उन्होंने इस प्रकार रस- पूर्वक सिखाया कि किसी भी प्रकार की ऊब और बोझ के विना हर एक विद्यार्थी वह अरसिक विषय सीख लेने के लिए उत्सुक रहता।
हमारे जैसे अनेकानेक विद्यार्थी और बालकों ने अनुभव किया कि काकासाहेब का वात्सल्य उनसे शिक्षण प्राप्त किये हुए विद्यार्थी तक ही सीमित नहीं रहा है, बल्कि उनके प्रेम की सरिता हमारे कुटुम्ब के बच्चों तक बहती रही और काकासाहेब के पत्तों के द्वारा उनका भी विकास होता रहा। साबरमती आश्रम के विसर्जन के बाद भी उनकी मौलिक विचारधारा का मार्गदर्शन उनके प्रेमपूर्ण पत्रों के द्वारा मिलता रहा।
ईश्वर ऐसे गुरु को चिरकाल तक आयुष्य प्रदान करे और उस ज्ञानरूपी विशाल वटवृक्ष की छाया हम ७४ / समन्वय के साधक