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के पक्षपाती मेरा कड़ा विरोध करने लगे ।
कोंकणी के विकास का खुद मराठी ही विरोध करती है, यह देखकर मैं मराठी का विरोधक बना । इसके पहले कोंकणी के लेखक वर्दे वालावलीकर को भी मराठी के विरोध का सामना करना पड़ा था। वे कड़े मराठी - विरोधक बने थे ।
मैं काकासाहेब के सान्निध्य में पहुंचा उससे पहले मराठी-विरोधक वालावलीकर-पंथी बन चुका था । Tatara ने मेरी कोंकणी भक्ति को बढ़ावा दिया। किन्तु मेरे मराठी विरोध का कड़ा विरोध किया। शुरू-शुरू के दो-तीन साल तो वे मुझे यही समझाते रहे कि मराठी के संपर्क के बिना कोंकणी या तो सूख जायेगी या मर जायेगी । और मैं उनसे कहता रहा कि कोंकणी को अपने विकास के लिए यदि किसी दूसरी भारतीय-भाषा की सहायता लेनी पड़े तो हम हिन्दी की लेंगे। मराठी की हरगिज नहीं लेंगे ।
एक दिन मैंने काकासाहेब से पूछा, "काकासाहेब, आप मराठीवादी हैं या कोंकणीवादी हैं ? महाराष्ट्र तो आपको कोंकणीवादी मानता है और आपकी कड़ी आलोचना करता है । और इधर लगातार तीन साल आपने मुझे मराठी का महत्त्व समझाने में खर्च किये हैं ।"
मैंने यह भी पूछा, “महाराष्ट्र ने आपकी इतनी निंदा की है। फिर भी आप चूं तक नहीं करते ! आप कैसे यह सब सह लेते हैं ?"
काकासाहेब ने कहा, “मैं स्वयं महाराष्ट्रीय हूं। महाराष्ट्र के स्वभाव से खासा परिचित हूं । महाराष्ट्र आज मेरी निंदा करता है । किन्तु किसी-न-किसी दिन उसको मेरी भूमिका जंच जायेगी। तब वह विरोध करना छोड़ देगा । मैं इस देश की छोटी-बड़ी सब भाषाओं का विकास चाहता हूं। सभी भाषाएं जीवित रहें, बढ़ें । कोई किसी का द्वेष न करे। मेरे लिए सभी भाषाएं एक-सी प्रिय और पूज्य हैं। मैं चाहता हूं कि तुम्हारी भी भूमिका यही रहे । तुम कोंकणी की सेवा करते रहो मराठी की भी करो । हिन्दी तो हम सबकी है। पुर्त - गाली तुम जानते हो। इस भाषा का सारा बढ़िया साहित्य हिन्दी - मराठी में ले आओ। इस बहु-भाष देश में हरएक को बहुभाषिक बनाना है । सर्वधर्म समभाव की तरह सर्वभाषा - समभाव - समभाव ही नहीं, ममभाव हमारी नीति होनी चाहिए।"
मुझे ठीक स्मरण है कि जिस दिन मैंने 'सर्वभाषा-समभाव' शब्द सुना उसी दिन मेरी भाषा विषयक सारी भूमिका में आमूल परिवर्तन हुआ ।
मैं आज भी कोंकणी में ही ज्यादातर लिखता हूं । कोंकणी के लिए ही मैंने अपना जीवन समर्पित किया है । किन्तु मैं मराठी में भी लिखता हूं । महाराष्ट्र के नेता लोग या मराठी के पक्षपाती मानें या न मानें मैं मराठी का भक्त भी हूं । मराठी के पक्षपाती जब कोंकणी का विरोध करते हैं, तब मुझे चिढ़ आती है । एक तमाचा खाने पर दूसरे को दो लगा भी देता हूं। हिन्दीवालों को भी जब मैं 'साम्राज्यवादी' बने हुए देखता हूं, तब मुझे गुस्सा आता है। मौका मिलने पर उनको भी भली- बुरी सुना देता हूं। किन्तु —
शपथपूर्वक कहता हूं कि मुझे इस देश की सभी भाषाएं एक-सी प्रिय हैं। एक-सी पूजनीय हैं ।
मेरे जैसे कड़े मराठी-विरोधी को इतनी हद तक बदल देना क्या मामूली करामात है ? क्या काकासाहेब की समन्वयवृत्ति की यह करामात नहीं है ?
समन्वयवृत्ति की जितनी आवश्यकता धर्म के क्षेत्र में है, उतनी ही भाषा के क्षेत्र में है, बल्कि मैं कहूंगा, इसी क्षेत्र में सबसे ज्यादा आवश्यकता है । O
७० / समन्वय के साधक