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उन दिनों गांधीजी पर प्रहार करना हो तब ये नेता लोग काकासाहेब पर प्रहार करते थे।
इस पार्श्व-भूमि में काकासाहेब ने उन्नीस सौ पैंतालीस में कोंकणी भाषा को बढ़ावा देना शुरू किया। कोंकणी का मुख्य केन्द्र गोवा है। और काकासाहेब का गोवा के साथ बहुत पुराना संबंध है। उनके पुरखे गोवा के हैं । कूलदेव भी गोवा में हैं। उनके घर की बहुएं अक्सर कोंकणी ही बोलती थीं। कोंकणी के माधुर्य से वे बचपन से परिचित थे। बाद में उसकी संस्कार-संपन्न आंतरिक शक्ति को देखकर वे उससे कुछ प्रभावित और मोहित भी हुए। इतनी सुन्दर, मीठी और संस्कारी-भाषा केवल उसके सुपुत्रों की उपेक्षा के कारण साहित्य-निर्मिति के क्षेत्र में पिछड़ी रही इस बात का उन्हें दुःख था।
गोवा की राजनैतिक परिस्थिति से जब वे परिचित हुए तब कोंकणी की एक और शक्ति का उन्हें दर्शन हआ। उन्होंने देखा कि दो बिलकुल स्वतंत्र दुनिया में रहने वाले गोवा के ईसाइयों और हिन्दुओं को एकत्र जोड़नेवाली यही एक कड़ी है। गोवा के सामाजिक संगठन में यह भाषा बहुत ही महत्त्व का हिस्सा अदा कर सकती है। स्वराज्य-प्राप्ति के लिए इस सामाजिक संगठन की नितांत आवश्यकता है। बल्कि यह संगठन ही स्वराज्य-प्राप्ति की बुनियाद है।
उन्होंने यह भी देखा कि गोवा के ईसाई लगभग चार शताब्दियों से भारत के सांस्कृतिक प्रवाह से अलग कर दिये गये हैं। उनमें यदि राष्ट्रीय जागृति लानी हो और उन्हें यदि भारत के सांस्कृतिक प्रवाह में लाना हो तो कोंकणी ही एकमात्र प्रभावी साधन बन सकती है।
गोवा के सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय संगठन के एक प्रभावी साधन के तौरपर काकासाहेब ने कोंकणी के विकास कार्य को बढ़ावा देना शुरू किया।
मगर पूर्वाग्रह-पीड़ित महाराष्ट्रीय नेता काकासाहेब की इस भूमिका को कैसे समझें? उन्हें लगा कि काकासाहेब महाराष्ट्र को कमजोर बनाने के लिए यह 'अलग खिचड़ी पका रहे हैं' (सवतासुभा उभा करीत आहेत) वे काकासाहेब पर टूट पड़े। उनकी आलोचना करते समय कई लोगों को मर्यादा का भान भी नहीं रहा। वे कहने लगे, "कोंकणी मराठी के परिवार की ही एक बोली है । अतः गोवा महाराष्ट्र का ही एक अविभाज्य अंग है। आप कोंकणी को बढ़ावा देकर गोवा को महाराष्ट्र से अलग करना चाहते हैं।"
यहां तक तो ठीक, किन्तु वे इससे भी आगे गये और कहने लगे, "आप महाराष्ट्र के शत्रु हैं।"
सन् उन्नीस सौ पैंतालीस से लेकर इकसठ तक काकासाहेब की महाराष्ट्र में बड़ी ही निंदा की गयी। मझे आश्चर्य और दुःख इस बात का है कि काकासाहेब से घनिष्ठ संबंध रखनेवाले 'गांधीवादी' महाराष्ट्रियों ने भी कभी इस आलोचना का प्रतिवाद नहीं किया। "आप किनके बारे में इस तरह की वाहियात और उच्छखल बातें कर रहे हैं ?" यह पूछनेवाला कोई भी 'माई का लाल' महाराष्ट्र में इन सोलह-सत्रह वर्षों में नहीं निकला।
यहां मुझे कुछ अपनी बात भी बतानी चाहिए। मेरी मातृभाषा कोंकणी है। साहित्य के प्रति जब मुझमें आकर्षण पैदा हुआ तब जो एक महत्त्व की बात मेरे ध्यान में आयी वह यह थी कि मराठी या गूजराती में जो साहित्यिक लिखते हैं वे घर में और आपस में भी मराठी या गुजराती-यानी अपनी-अपनी भाषा में बोलते हैं। उनकी बोलने की भाषा और लिखने-पढ़ने की भाषा एक है। मैं बोलता हूं कोंकणी में और लिखता हं मराठी में। इससे लिखते समय मेरा दम घुटता है। बहुत-सी बातें तो मैं मराठी में ठीक से व्यक्त भी नहीं कर पाता। मेरी सृजन-शक्ति में मराठी अड़चनें पैदा करती है। या तो मुझे बोलना भी मराठी में चाहिए या जो भाषा मैं बोलता है, उसीमें लिखना चाहिए। यही मेरे लिए स्वाभाविक है। इस अनुभव के कारण मैं कोंकणी का पक्षपाती बना और उसका प्रचार करने लगा। तब से मराठी
व्यक्तित्व : संस्मरण | ६६