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को व्यक्त करने वाली कहा। इस मिली-जुली संस्कृति को अपनाने की कोशिश करते हुए स्वतंत्र भारतीय के नाते काकासाहेब ने दुनिया के विभिन्न देशों की यात्रा की। जापान तो वे अनेक बार हो आये। समन्वय का संदेश उन्होंने सबों को सुनाया और भारत के अनेक सेवकों से चर्चा भी की।
_ वे बार-बार कहते हैं कि समन्वय तो अहिंसा के द्वारा ही सिद्ध हो सकता है और अहिंसा की मात्रा पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में ज्यादा है। आज तक दुनिया ने पुरुषों के नेतृत्व का अनुभव किया। अब नारी-शक्ति को आगे आकर दुनिया का नेतृत्व करना है और पुरुषों को उसका अनुसरण करना है। इसीमें जगत का कल्याण है।
समन्वय की साधना के लिए वसुधैव कुटुम्बकम् , यह सारा विश्व एक छोटा-सा कुटुम्ब है, यह भावना मनुष्य में विकसित होनी चाहिए। इसका प्रचार शब्दों से नहीं होता, संस्थाएं खड़ी करने से नहीं होता। प्रत्यक्ष मनुष्य अपने जीवन में इस भावना को जब उतारता है, तब अपने आप उसका प्रचार होता है। काकासाहेब इसी भावना से जी रहे हैं।
हमारे गुरु-तुल्य रामकृष्ण बजाज
पूज्य काकासाहेब से अनेक वर्षों से हमारा पारिवारिक सम्बन्ध रहा है। साबरमती विद्यापीठ में मेरे बडे भाई स्व० कमलनयनजी उनके विद्यार्थी रहे और उनके प्रति मन में बहुत गहरी श्रद्धा रखते थे। पू० काकाजी (स्व. श्री जमनालाल बजाज) का उनके प्रति विशेष आकर्षण था। काकाजी के अनुग्रह पर वे साबरमती आश्रम से वर्धा आ गए और बरसों तक वहां रहे। तब से दोनों परिवारों के बीच परस्पर सद्भावना.और स्नेह का जो सम्बन्ध जुड़ा वह अभी तक चला आ रहा है। इसी वजह से भाई कमलनयन और काकासाहेब के सुपुत्र सतीशभाई दोनों साथ ही अध्ययन के लिए विदेश गए थे। श्री सतीशभाई के विद्यार्थी-जीवन की खूबी यह थी कि वह जिस कक्षा में खुद पढ़ते थे, उसी कक्षा के विद्यार्थियों का वे साथ-ही-साथ ट्यूशन भी कर लेते थे। श्री सतीशभाई का भाई कमलनयन के साथ सदा अटूट और घनिष्ठ सम्बन्ध रहा और आज जबकि कमलनयन हमारे बीच नहीं हैं, हमारे अपनत्व में कोई कमी नहीं आई है। काकासाहेब को हमारे परिवार के सारे लोग ही गुरु-तुल्य मानते हैं। काकाजी के प्रति उनकी जो श्रद्धा और स्नेह की भावना रही, उसके कारण हम सबको उनका आशीर्वाद तथा मार्गदर्शन निरन्तर प्राप्त होता रहता है।
काकाजी और बापू के पत्र-व्यवहार के प्रकाशन के सिलसिले में मेरा उनसे अधिक निकटता का संबंध आया। पांचवें पुत्र को बापू के आशीर्वाद' नाम से प्रकाशित ग्रन्थ का सम्पादन काकासाहेब ने करना स्वीकार किया। इस दौरान कई दिनों तक लगातार मैं उनके पास जाता रहा । कौन-सा पत्र लेना, कौन-सा नहीं लेना, किस पत्न का कितना अंश लेना, आदि तय करने में उनका मार्गदर्शन और सलाह बहुत ही आत्मीयता से प्राप्त हुई । और भी जो सवाल सामने आते, उनका विवेचन वे तुरन्त बड़ी बारीकी से करते, स्पष्टता से उनका खुलासा करते और उचित समाधान कर देते। इस चर्चा और मार्गदर्शन से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला।
व्यक्तित्व : संस्मरण | ६३