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दिनों काकासाहेब के साथ रही, और काकासाहेब से प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा तृप्त की । उसको सन् १९५५ में पी-एच० डी० प्राप्त हुई ।
इस समय मुझे याद आता है कि गुजरात विश्वविद्यालय में जब गुजराती विभाग आरंभ किया गया, उस समय गुजराती विभाग के अध्यक्ष ( प्राध्यापक ) के लिए समाचार-पत्र में एक विज्ञापन निकला था । मैं भी उस स्थान के लिए आवेदन पत्र भेजा था। मुझे नियुक्ति - बोर्ड के समक्ष मिलने के लिए बुलाया गया । उस बोर्ड में काकासाहेब भी थे । उन्होंने मुझसे पूछा था, "तुम पी-एच० डी० के छात्रों को शोध प्रबंध लिखने के लिए कौन-सा विषय दोगे ?" मुझे याद है कि मैंने कहा था कि प्रथम तो आपके साहित्य-सर्जन पर ही शोधप्रबंध लिखवाऊंगा । तब वे जोरों से हंस पड़े थे ।
सन् १६३२ में मैंने गुरुदेव की कहानियों का रेडियो नाटक में रूपान्तर किया था, जो बम्बई आकाशवाणी से प्रसारित हुआ । बम्बई के 'कल्की प्रकाशन' ने जब उन नाटिकाओं को प्रकाशित करने की मांग की, तब मेरी इच्छा हुई कि उस पुस्तक की भूमिका काकासाहेब लिखें। मैंने सरोज बहन के मार्फत काकासाहेब से अनुरोध किया । उदार चरित काकासाहेब ने जापान यात्रा में व्यस्त होते हुए भी भूमिका लिखवाकर जापान से भेजी, जिसके लिए मैं उनका अत्यन्त ऋणी हूं। उनके आशीर्वाद से मैं लाभान्वित हुआ, इसलिए मैं अपनेआपको धन्यभाग्य समझता हूं ।
दिल्ली विश्वविद्यालय के एम०ए० के गुजराती छात्र-छात्राओं के स्नेह सम्मेलन में मैंने दो बार काकासाहेब को मुख्य अतिथि के रूप में निमंत्रित किया था और दोनों बार उन्होंने अत्यन्त प्रेम से मेरे निमंत्रण को स्वीकार किया और अत्यन्त रोचक और मधुर भाषण दिया ।
दिल्ली विश्वविद्यालय की गुजराती पाठ्यक्रम समिति में उनकी बहुमूल्य सलाह का लाभ हमें मिले, इसलिए उनकी नियुक्ति करवाई और उन्होंने समिति की बैठक में उपस्थित होकर हमें उपकृत किया ।
१९६५ में गुजराती साहित्य परिषद का अधिवेशन दिल्ली में आयोजित करने के लिए मैंने सूरत अधिवेशन में निमंत्रण दिया। काकासाहेब उस अधिवेशन में स्वागत समिति के अध्यक्ष बने - इतना ही नहीं, उस अधिवेशन की सारी व्यवस्था के लिए बार-बार परामर्श देते रहे। दिल्ली अधिवेशन की सफलता के लिए काकासाहेब का योगदान अत्यंत मूल्यवान है ।
काकासाहेब की ओर से गांधी हिन्दुस्तानी सभा द्वारा संचालित भारतीय भाषाओं की शिक्षा के वर्गों के लिए सरोज बहन ने गुजराती और बंगाली पढ़ाने के लिए मुझसे कहा तो मुझे बेहद आनंद हुआ, क्योंकि इससे काकासाहेब परिवार में प्रवेश करने का यह स्वर्णिम अवसर था ।
इस प्रकार काकासाहेब जैसे अर्वाचीन महर्षि के साथ मेरा संबंध घनिष्ठ होता गया और इसको मैं परमात्मा की कृपा - वर्षा मुझपर हो रही है, ऐसा मानता हूं | O
५८ / समन्वय के साधक