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उनकी कृपा वर्षा
चन्द्रकान्त मेहता
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गुजराती 'कुमार' मासिक पत्रिका में काकासाहेब ने अपनी बाल्यवय से किशोरावस्था पर्यन्त की जीवन-गाथा 'स्मरण गाथा' के नाम से धारावाहिक रूप से प्रकाशित करना प्रारम्भ किया, तभी से मैं उसे नियमित पढ़ता रहता था और इससे अत्यन्त प्रभावित हुआ था। उसके बाद काकासाहेब के साहित्य की अन्य पुस्तकें भी जैसे-जैसे प्रकाशित होती थीं, पढ़ता रहता था । काकासाहब की पुस्तकों ने मेरे साहित्यिक विचारों को आकार देने में प्रचुर मात्रा में सहायता की। काकासाहेब ने ही मुझे आत्म-विश्लेषण करने की प्रेरणा दी 1 उनकी पुस्तकों से ही यह आस्था मेरे मन में दृढ़ हुई कि प्रकृति जड़ तत्त्व नहीं है, परन्तु उसका मनुष्य की भांति जीवन रूप है । जब उमाशंकर जोशी का प्रथम काव्य 'विश्वशांति' प्रकाशित हुआ और मैंने काका साहेब की लिखी हुई इसकी भूमिका पढ़ी तब गांधीजी के साथ मेरा केवल भावनात्मक संबंध था, उसको तार्किक बल मिला । महादेवभाई द्वारा अनूदित गुरुदेव की पुस्तक 'प्राचीन साहित्य' में काकासाहेब की काव्यमयी भूमिका ने मुझे 'गुरुदेव' के प्रति आकर्षित किया और 'कालिदास' 'शेक्सपियर' तथा 'गुरुदेव' को नई दृष्टि से समझने का अवसर दिया ।
इस प्रकार काकासाहेब के मनोजगत से परिचित होने पर भी उनके दर्शन का मुझे अवसर प्राप्त नहीं हुआ था। वह प्राप्त हुआ तब जब अहमदाबाद में गुजराती साहित्य परिषद का अधिवेशन सन् १९३६ में हुआ । और कला विभाग के अध्यक्ष के रूप में काकासाहेब चुने गये, उनके दर्शन हुए और कला-विषयक उनका अध्यक्षीय भाषण सुनकर मुझे कला के यथार्थ स्वरूप की झांकी मिली। मुझे याद है कि उसी अधिवेशन में मैंने काकासाहेब के हस्ताक्षर लिए थे । उमाशंकर जोशी मेरे अच्छे मित्र थे और काकासाहेब के सुपुत्र सतीश कालेलकर उमाशंकरजी के अच्छे मित्र थे । उमाशंकरजी के घर सतीशभाई से मैं मिला, मुझे काकासाहेब के पुत्र के माध्यम से स्वयं काकासाहेब से मिलने का आनंद प्राप्त हुआ। मुझे यह भी लोभ था कि सतीशभाई की मैत्री से काकासाहेब को मिलने का सुयोग मुझे मिलेगा, और वैसा हुआ भी । सतीशभाई उस समय बम्बई के एल्फिन्स्टन कॉलेज में पढ़ते थे, और जब काकासाहेब बम्बई आते थे, तब उनके साथ मैं काकासाहेब से मिलने लगभग चार-पांच बार गया हूंगा, ऐसा मुझे याद है । मेरे जीवन के वे क्षण बहुमूल्य थे, इतना ही नहीं, मुझे लगता था कि हरेक बार मैं ज्ञान समृद्ध होकर वापस आता था ।
इस बीच गुजराती पत्रिकाओं में काकासाहेब के ग्रंथों के विषय में आलोचनात्मक लेख लिखता रहता था । काकासाहेब संबंधी अध्ययन ग्रंथ में, जिसमें काकासाहेब -विषयक विविध लेखकों के लेख प्रकाशित हुए हैं, 'काकासाहेब का प्रकृति निरूपण' विषय पर मेरा लेख भी समाविष्ट किया गया है, जिसमें केवल गुजराती साहित्य में ही नहीं, परन्तु विश्वसाहित्य में काकासाहेब प्रकृतिदर्शन की विशेषता के लिए चिरंतन स्थान प्राप्त करेंगे, यह स्पष्ट रूप से दिखाया गया है ।
जब सन् १९५६ में मुझे बंबई विश्वविद्यालय ने पी-एच० डी० का निर्देशक नियुक्त किया, तब काकासाहेब के साहित्य का विशेष और गहरा अध्ययन हो सके, इसलिए मैंने अपनी एक छात्रा कु० शारदा गोरडिया को 'काकासाहेब - एक अध्ययन' विषय शोधप्रबंध के लिए दिया । इस निमित्त गहराई से काकासाहेब की सारी रचनाओं का अध्ययन करने का अवसर शारदा के बहाने मुझे मिला। जब वह शोध के कार्य में लगी हुई थी तब मेरी दिल्ली विश्वविद्यालय में गुजराती के प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति हुई । शारदा भी दिल्ली आई। कई
व्यक्तित्व : संस्मरण / ५७