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ऐसा ही एक बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रसंग इस समय सहज ध्यान में आ रहा है। हमें १९६४ से १९६७ तक नेपाल में रहने का सुअवसर मिला था, तब सम्भवतः १९६५ में पहली बार 'नवयुवक सम्मान दिवस' की रूपरेखा दिल्ली के फिरोजशाह रोड के मकान में, काकासाहेब जब श्रद्धेय कमलनयनभाई के पास आये थे तब, मैंने उन्हें दिखाई थी। उसे उन्होंने बहुत पसन्द किया। विद्यार्थियों में असन्तोष का कारण और उसका निवारण कैसे हो सकता है, इसका गहराई से विचार करते हुए नवयुवकों के सम्मान की बात मेरे मन में आई, यह सब खूब ध्यान से और गहरी दिलचस्पी से काकासाहेब ने सुना और उसका नाम 'नवनागरिक सम्मान-दिवस' रखना ठीक होगा, ऐसा उसी समय सुझाव दे दिया। इससे मुझे बड़ा भारी प्रोत्साहन मिला। फलस्वरूप उसका पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा भारत भर में खूब प्रचार हुआ। गांधी शताब्दी में गुजरात भर में 'तरुणाभिनन्दन' के कार्यक्रम खूब सफलता से सम्पन्न हुए। उसका प्रभाव दिल्ली की लोकसभा तक जा पहुंचा और त्किालीन केन्द्रीय शिक्षामंत्री डा० वी०के०आर०वी० राव ने बड़ी अच्छी तरह एक प्रस्ताव के रूप में 'नवनागरिक सम्मान-दिवस' के विचार को लोकसभा में प्रस्तुत किया। कुछ अनुकूल, कुछ प्रतिकूल चर्चा के बाद इस सदन में वह प्रस्ताव पास हो गया कि १५ अगस्त से दो दिन पहले १३ अगस्त का दिन देश-भर में 'तरुणाभिनन्दन दिवस' के रूप में मनाया जाय। तदनुसार गुजरात में १९७२ का १३ अगस्त का दिन राज्य भर में
और विशेषतः राजभवन में बड़े शानदार तरीके से मनाया गया। वैसे तो गांधी शताब्दी में १६६६ से ही गुजरात में तरुणाभिनन्दन के समारोह होते ही रहे हैं। वह तो महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना ही हो गई है।
पिता जमनालालजी की राष्ट्रीय स्मृति में 'स्मृति-संगम' नामक एक छोटे से ग्रन्थ का संग्रथन हो रहा था, तब पू० काकासाहेब से बार-बार मिलने का मिलने का मुझे मौका और प्रोत्साहन मिलता रहा। संग्रंथन कार्य पूरा होने पर 'स्मृति-संगम' के लिए उन्होंने आशीर्वचन के रूप में ये पंक्तियां लिखीं :
"चन्द ग्रन्थों में 'इतिहास' होता है ! चन्द ग्रन्थों में 'माहात्म्य' पढ़ने को मिलता है। 'स्मृति-संगम' में इन दोनों का संगम है ही। लेकिन इसमें जो तीसरी चीज है, उसके सामने ये दोनों तत्व महत्व के होते हुए भी गौण बनते हैं। 'स्मृति-संगम' में महात्माजी के विशाल विविध-युग की पवित्रता' का वायुमण्डल मिलता है।" शुरू से आखिर तक इसी पवित्रता के वायुमण्डल के कारण पढ़ते-पढ़ते हृदय उन्नत होता जाता है और मानो सारे ग्रन्थ से हमें वही दीक्षा मिल रही है। इस तरह कितने उन्नत आशीर्वचन काकासाहेब से संग्रथन को मिले कि कृतज्ञता से मस्तक अपने आप नत हो उठता है।
काका जमनालालजी की सब संतानों का स्मरण भी स्मृति संगम की प्रस्तावना में काकासाहेब ने अत्यन्त आत्मीयता से किया था।
काकासाहेब बड़े कुशल रत्नपारखी हैं। बचपन से उन्होंने बहुरत्ना वसुन्धरा के रूप में भारत को भलीभांति परखा है । व्यक्तियों में पहले गुरुदेव ठाकुर को उन्होंने परखा। बाद में महात्मा गांधी के व्यक्तित्व को इस तरह परख लिया कि आजीवन उन्हीं के होकर रह गये। इसी तरह काकासाहेब व्यक्तियों के अन्तरतम में समाये हुए सद्गुण रूप अनेकानेक बहुमूल्य रत्नों के रत्नपारखी हैं। उनके स्नेहीजनों का मण्डल विश्वभर में फैला हुआ है । उन्होंने अगणित व्यक्तियों के जीवन को ज्ञान-साधना से समृद्ध किया है। उनके एक पत्र से या एक बार याद करने से भी मन उनकी ओर इतना गुरुत्वाकर्मी हो जाता है कि तत्काल उनसे जाकर मिलने का मन हो उठता है।
काकासाहेब ने हमारे पिता जमनालालजी और पितामह बापूजी की संस्कार-साधना की परम्परा को इस प्रकार से प्रस्तुत किया है कि हम उसको समझकर उसका अनुसरण करने का विचार, चिन्तन और प्रयत्न कर सकें।
३८ / समन्वय के साधक