________________
उपस्थिति में सानन्द मनाया है। पू० बापूजी के दिवंगत हो जाने के बाद काकासाहेब के साथ सौराष्ट्र और गुजरात का प्रवास बड़ा आश्वासनप्रद रहा था। काकासाहेब का जीवन-व्यवहार हर प्रकार से कलापूर्ण होता है। यह अनुभव उनके साथ प्रवास में विशेष रूप से मिला। उसकी याद आज भी हमें आनन्दित और श्रद्धान्वित कर देती है। हम नेपाल में थे, तब वहां भी पू० काकासाहेब का शुभागमन हुआ था। वहां से बारबार मिलना होता ही रहा। वे हमारे अनुरोध पर अनेक बार अहमदाबाद राजभवन में आकर भी रहे। उनके सान्निध्य में गुजरात के विशिष्ट बुजुर्गों का अनौपचारिक पारिवारिक सम्मेलन भी करीब चार दिन तक राजभवन में बड़ा ही सफल और सुखदायक रहा था।
काकासाहेब के साथ अरुणोदय से सूर्योदय तक की निसर्ग की रमणीयता का आनन्द भी अनेक बार जी भरकर लूटने को मिला। उसमें सरोजबहन की प्रार्थना के सुमधुर स्पष्ट स्वर सदा कानों में गूंजते रहते हैं।
राजभवन के निकट साबरमती नदी के पुल पर से दिन-भर में असंख्य ट्रेनें आती-जाती रहती थीं। उनकी आवाज सुनकर उसमें अपनी आवाज मिलाते हुए काकासाहेब हमारे दो बालकों की याद हमेशा कर लिया करते थे । देखो, यह रेलगाड़ी बराबर पूछ रही है, "भरत कहां है? रजत कहां है ?" यह है बडा अजब और अनोखा काकासाहेब का तरीका । जीवन की स्मृतियों को पारिवारिक स्मृतियों से संबंधित करके वे हमेशा के लिए स्वजनों में एक शुभ संस्कार का सिंचन कर देते हैं। पंछियों की बोली को दुहरा-दुहराकर बच्चों को बहलाने में उनको बड़ा ही आनन्द मिलता, खास करके ग्रीष्म ऋतु के बाद वर्षा के पूर्व आम की अमराइयों में कुकती हुई कोयल की नकल करके उसे छेड़ने और चिढ़ाने में काकासाहेब बच्चों में इतने घुलमिल जाते कि देखने-सुनने वाला भी आनन्द-विभोर हो उठता। इस बात पर शास्त्रों का एक कथन याद आता है, "ब्राह्मणः पांडित्य निविध बाल्येन तिष्ठासेत।" अर्थात् विद्वजन को अपनी पंडिताई भूलकर बालक के समान रहना चाहिए। यह बात बच्चों के साथ तो काकासाहेब को एकदम ही सध जाती थी।
काकासाहेब की एक विशेषता यह भी है कि वे सूर्य की भांति 'नित्य-प्रवासी' रहे। नैमित्तिक रूप से तो हवाई जहाज, रेलगाड़ी या मोटरकार में जब जहां जाना होता, वे जाते ही रहते। पर वे जब दिल्ली के अपने 'सन्निधि' के निवास स्थान पर रहते हैं, तब भी उनका प्रवास प्रायः रोजाना ही नियमित रूप से होता है। वे दिनकर (सूर्यदेव) की भांति दिन-भर अपनी अनेक विध-प्रवृत्तियों में संलग्न रहते हैं। सूर्यास्त के समय सांध्यवेला में अक्सर उनके छोटे बेटे बाल कालेलकर उन्हें लेने आ जाते थे। तब अपनी सार्वजनिक प्रवृत्तियों की किरणों को समेटकर वे अपने बेटे के साथ अपने दो पोतों के जीवन में मातृ-स्थान की पूर्ति की दृष्टि से गहरा स्नेह-सिंचन और शुभ-संस्कार देने के लिए उनके निवास-स्थान पर जा पहुंचते थे। अपने प्यारे दादा को पाकर बच्चे ऐसे प्रफुल्लित होते, जैसे सूर्य-प्रकाश को देखकर सरोवर के कमल खिल उठते हैं। यह काकासाहेब का क्रम उनकी स्नेहमयी पुत्र वधु रेवारानी के स्वर्गवास के बाद वर्षों से सतत चलता रहा। यह देखकर मन आश्चर्यचकित हो उठता। बच्चों को नित नई कहानी सुनाना, उनके साथ स्नेहयुक्त सहभोजन करना, उनको सुलाकर सोना । सुबह जल्दी उठकर प्रातविधि से निवृत्त हो ईश-स्मरण करना, फिर बच्चों के साथ बड़े ठीक तरीके से नाश्ता करना और कराना। उसके बाद प्रार्थना प्रवचन के समय ठीक ७ बजे सान्निधि पहुंच जाना।
काकासाहेब के साथ कभी भी कोई नया विचार, नई बात या नई योजना के सम्बन्ध में सलाह पूछी जाय तो वे इतने खुश होते हैं और उसमें इतना रस लेते हैं कि सामने वाला अपने आप प्रोत्साहन पा लेता है।
व्यक्तित्व : संस्मरण | ३७