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उन दिनों गुजरात विद्यापीठ के उपकुलपति थे और महात्मा गांधी द्वारा स्थापित इस विश्वविद्यालय के क्षेत्र में रहते थे।
यहां मैं यह कह दूं कि इससे पहले मैं गांधीजी के निकट के सहयोगी श्री किशोरलाल मशरूवाला तथा गांधीजी के सचिव श्री महादेव देसाई के बौद्धिक तथा सांस्कृतिक विचारों से प्रभावित हो चुका था । इसके बावजूद काकासाहेब का आगमन मेरे लिए बादल से फूटते सूर्य-पुंज के समान था और जब मेरी उनसे प्रथम भेंट हुई तो मेरे मन में एक खुशी की लहर दौड़ गई। कई वर्ष पूर्व काकासाहेब शान्तिनिकेतन में रह चुके थे और गुरुदेव टैगोर का अध्ययन कर चुके थे। वह कविवर के बड़े प्रशंसक थे। सत्याग्रह आश्रम में आने के पश्चात् गांधीजी से निकट संबंध रखनेवाले भारतीय संस्कृति, दर्शन और कला के अद्भुत प्रतीक रूपी व्यक्ति से यह मेरी प्रथम भेंट थी ।
आश्रम में उन दिनों दो विचारधाराएं उभरकर सामने आ रही थीं। उनमें से एक कठिन अनुशासन तथा साधना की थी, जिसके नेता मगनलाल गांधी थे। दूसरी बौद्धिक, सांस्कृतिक तथा कलात्मक दृष्टिकोण से प्रभावित थी, जिसके नेता काकासाहेब थे। दोनों के बीच कोई प्रत्यक्ष तनाव तो नहीं था, परन्तु गांधीजी के महान व्यक्तित्व की छाया में इन दोनों विचारधाराओं का एक प्रकार का अन्तप्रवाह सा चारों ओर सूर्य की किरणों की भांति समस्त आश्रम में फैला हुआ था। जैसे-जैसे समय गुजरता गया, काकासाहेब और मैं गांधीजी द्वारा निश्चित किए हुए अपने-अपने अलग रास्तों पर, निर्माण कार्य में लग गये, परन्तु हमारी मुलाकातें कई स्थानों पर अक्सर होती रहीं ।
काकासाहेब जब हिन्दी प्रसार के कार्य हेतु केरल आये तो उनके साथ यात्रा करने का तथा उनका यात्रा सम्बन्धी कार्यक्रम बनाने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। केरल हिन्दी प्रचार सभा के सचिव देवदूत विद्यार्थी सहित उनके साथ केरल के कई स्थानों का मैंने भ्रमण किया और मुझे काकासाहेब के मन्त्र-मुग्ध करने वाले भाषण सुनने का अवसर भी मिला। इस अवसर पर वह अपने भाषणों में दक्षिण भारत के लिए हिन्दी भाषा की आवश्यकता तथा उसके कार्यक्षेत्र इत्यादि के अतिरिक्त देश में व्याप्त कई अन्य समस्याओं पर भी अमूल्य प्रकाश डालते थे, जिनमें जातिप्रथा तथा अस्पृश्यता का उन्मूलन, स्त्री जाति की स्वतन्त्रता तथा सामाजिक समन्वय और राजनैतिक स्वतन्त्रता द्वारा प्रस्तुत चुनौतियां भी सम्मिलित थीं। विशेषतः मुझे वह अवसर अच्छी तरह से याद है, जब उन्होंने प्रेम की व्याख्या भारत के कवियों तथा दार्शनिकों की शैली में की थी तब मैं पूर्ण रूप से समझा कि काकासाहेब स्वयं संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान तथा हिन्दी, अंग्रेजी और गुजराती के प्रतिभाशाली लेखक होने के साथ-साथ अपने जीवन-दृष्टिकोण में एक आधुनिक नवीनता भी रखते थे ।
अपने व्याख्यानों में वह नई पीढ़ी को पीछे की तरफ दृष्टि न रखने की चेतावनी देते थे, चाहे अतीत कितना भी गौरवपूर्ण क्यों न हो। नई पीढ़ी से वह सदा आगे बढ़कर पहले से अधिक भव्य भविष्य का सृजन करने का अनुरोध करते थे। केरल के राजनैतिक नेताओं द्वारा प्रस्तुत तरह-तरह के प्रश्नों के समाधान करने में काकासाहेब पूरी तरह सफल रहे। मुझे अच्छी तरह याद है जब एक प्रतिभाशाली नेता ने काकासाहेब से पूछा था, "क्या स्वराज्य हमें उपलब्ध हो सकेगा और यदि हाँ, तो क्या हमारे जीवन काल में ऐसा संभव होगा ?" काकासाहेब ने एक आकर्षक मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया, "आपको स्वराज्य कल ही मिल सकता है, यदि आप गांधीजी की बात मानें और उनके कार्यक्रम पर पूर्णरूप से अमल करें, अन्यथा आप ही बता सकते हैं कि आपको स्वराज्य कब मिलेगा। यह आप पर और मेरे ऊपर निर्भर है।"
उन्होंने आगे कहा कि स्वराज्य कोई सस्ती अथवा आसान वस्तु नहीं, अपितु इसकी प्राप्ति के लिए बहुत बलिदान और कष्ट सहने पड़ेंगे। उन्होंने प्रश्नकर्त्ता को यह कहकर निरुत्तर कर दिया, "आप कितना
व्यक्तित्व : संस्मरण / २१