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रहने लगे थे। तब सबसे मिलना-जुलना होता ही रहता था। काकासाहेब के बड़े लड़के सतीश के साथ हमारे बेटे कमलनयन की बड़ी दोस्ती थी। विदेश में भी वे साथ ही रहे। बापू की ऐतिहासिक दाण्डी यात्रा में भी दोनों साथ थे और बाद में भी कमलनयन के साथ जीवन-भर उनकी दोस्ती कायम रही। सतीश का छोटा भाई बाल तो इतना मीठा बोलता था कि मैं सदा उसके मुख की तरफ देखती रहती थी कि वह क्या बोलता है।
शुरू में बापूजी की साप्ताहिक पत्रिका 'नवजीवन' आती थी। वह मैं पढ़ती थी, पर कुछ समझून समझं तो काकासाहेब के पास कोई लेख समझने को ले गई। उन्होंने इस तरह से समझाया कि बापूजी लिखते क्या हैं, इसका अर्थ क्या है, इसको इस तरह पढ़ना, इस तरह मनन करना। गुजराती, हिन्दी, संस्कृत में बापूजी की लेखन-शैली को इस तरह से समझाया कि एक ही दिन में सब कुछ समझ में आ गया हो, इतना सन्तोष हो गया।
काकासाहेब की तरह उनकी पत्नी को भी सब 'काकी' ही कहते थे। बापूजी, सब बच्चे और काका भी उनको 'काकी' ही कहते थे, जैसे उनका नाम ही 'काकी' हो गया था। उस समय आश्रम में बापूजी प्रौढ़ बहनों का वर्ग लेते थे। तब हम सभी का वहां मिलना हो जाता था। उसमें काकी के साथ भी अच्छी घनिष्ठता हो गई थी।
जमनालालजी की काकासाहेब के साथ गहरी घनिष्ठता साबरमती आश्रम में ही हो गई थी। इससे उनको भी उन्होंने वर्धा बुला लिया। उनके साथ रेहानाबहन और सरोजबहन भी यहीं आ गयीं। काकासाहेब के नाम पर काकावाडीही बस गई, जो सेवाग्राम जाने के रास्ते पर गोपूरी की ओर अब भी कायम है और वहां कई प्रकार के रचनात्मक और ग्रामोद्योग के काम चलते हैं।
काकासाहेब के पास ज्ञान का भण्डार है। कोई भी प्रश्न लेकर जाओ, इतनी सरलता से गले उतार देते हैं कि जैसे क, ख, ग से लेकर आखिर तक की पूरी बात समझ में आ जाती है। अभी कुछ समय पहले जनवरी में मैं दिल्ली में थी, तब छोटी बेटी उमा के साथ काकासाहेब से मिलने गई थी। वे कान से कम सुनते हैं, पर चेहरा देखते ही पहचान लेते हैं। उनसे मिलने वालों का तांता लगा ही रहता है और मन में ऐसी दया-सी आती है कि अब इनसे कुछ पूछकर इन्हें क्यों सतायें; पर वे तो हरेक मनुष्य को देखकर उससे बात करके ही सन्तोष पाते हैं । कान में यन्त्र से सुनना पड़ता है, फिर भी वे पूरी बात पूछते हैं और देर तक खूब समझाते हैं। वे तो ऊबते ही नहीं हैं. आने वाले भले ऊब जायें। उनके साथ रहने वाली सरोजबहन भी धन्य हैं !
रेहानाबहन को जमनालालजी ने अपनी धर्मबहन मान लिया था और उनसे राखी भी बंधवाते थे। रेहानाबहन शरीर से नाजुक ही थीं, पर उनकी आत्मा बड़ी बलवान थी। वे इहलोक-परलोक तक की बातों में गहरा रस लेती थीं। जीवन-मरण की समस्या हल कर देती थीं। उनके पास छोटे-बड़े सबको गहरा प्रेम मिलता । बड़े-से-बड़े संकट का धर्म-ज्ञान-ध्यान से वे निवारण कर देतीं । देश-परदेश के अनेक लोग हरेक भाषा वाले उनके पास अपने जीवन के जटिल प्रश्नों को लेकर आते। उनको दान, धर्म, हवन, पूजन, जप, यज्ञ आदि मनुष्य की शक्ति और भक्ति के अनुसार वे बतातीं और श्रद्धा बढ़ा देतीं।
अपने पिता श्री जमनालालजी की स्मृति में छोटे बेटे रामकृष्ण ने 'पांचवें पुत्र को बापू के आशीर्वाद' किताब छपवाई थी, तब उसकी बड़ी भावभरी प्रस्तावना काकासाहेब ने लिखी। बेटी उमा से उन्होंने जापान-यात्रा का हिन्दी में अनुवाद कराया। चि० मदालसा ने 'स्मृति-संगम' तैयार किया। उसकी प्रस्तावना भी काकासाहेब ने ही लिखी। कमलनयन पर तो उनका गहरा स्नेह था ही। बड़ी लड़की कमला के पति
२६ / समन्वय के साधक