SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अब फिरसे ज्योतिलिंग पर आऊं। इन बारह लिंगों से भी ज्यादा पवित्र एक स्थान है-'गोकर्णः' यथा कैलास-शिखरे, यथा मंदार मूर्धनि । निवासो निश्चितः शंभो,-तथा गोकर्ण मंडले ।। यह गोकर्ण कारवार के पास है 'चालीस साल में एक बार होने वाले अष्टबंध महोत्सव में' मैं वहां छुटपन में पिताश्री के साथ गया था। इसका वर्णन मेरी 'स्मरण-यात्रा' में लिखा हुआ है। 'भारतीय संस्कृति कोश' करके एक मराठी 'एनसाइक्लोपीडिया' जैसी ग्रंथमाला तैयार हो रही है। दस भाग में से आठ भाग प्रकाशित हुए हैं। दस भाग की कीमत करीब रु० २५०/- होगी। उसमें गोकर्ण का माहात्म्य दिया है और बारह ज्योतिलिंग के बारे में भी थोड़ी-बहुत जानकारी मिलती है। बारहों बारह ज्योतिलिग जाने का संकल्प न कर, उज्जैन के महाकाल, हिमालय के केदार, बनारस के विश्वेश और नासिक के व्यंबक इतने का दर्शन किया हो तो बस । सेतुबंध रामेश्वर को भी इनके साथ मिला दो। लेकिन इतने सबके दर्शन को जाना ही चाहिए ऐसी राय मैं नहीं दूंगा। हृदय कहे, उसी प्रकार निश्चित करना। अब तुमने 'वेदोक्त' और शास्त्रोक्त के बीच का भेद पूछा है। (मेरे मन से ये भेद महत्व के नहीं हैं।) चार वेद और इनके 'ब्राह्मण' (ब्राह्मन नामक ग्रंथ) में जो हिन्दूधर्म मिलता है, वह वेदोक्त है। उन वेदों से जो अध्यात्म तत्व मिला, उसे उपनिषद के ऋषियों ने अलग करके बताया। उसे वेदान्त कहते हैं । वेद से निकलता मक्खन, वह वेदान्त । इतना ऊंचा धर्म जो सह न सके, उन्होंने स्मृतियों और पुराण से अनेक धर्मशास्त्रों को जन्म दिया है। उसका विस्तार अनन्त है। वह अपना रुढ़िगत हिंदू-धर्म शास्त्रोक्त कहलाता है । तुम्हें पता ही है कि सौराष्ट्र के दयानंद सरस्वती ने वेदों को प्रमाण मानकर पीछे के पौराणिक भाग को मिटा दिया और आर्य समाज की स्थापना की। वेद में कुछ संकुचितता है, उसी कारण उसको स्वीकार करने के लिए वे बंधे हुए हैं, जबकि बंगाल के ब्रह्म समाज ने और बम्बई के प्रार्थना समाज ने ग्रंथ प्रामाण्य मिटाकर, बुद्धि प्रामाण्य, हृदय प्राामण्य और अनुभव प्रामाण्य को महत्व दिया। कविवर रवीन्द्र ठाकुर ब्रह्म समाजी। मैं तो भारतीय संस्कृति का उपासक । मैंने विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ और गांधीजी तीनों के पास से खूब लिया। लेकिन मेरा व्यक्तित्व भारत माता के आशीर्वाद से शुद्ध, समर्थ और समृद्ध बने, ऐसी साधना मैंने चलाई है। हिंदू धर्म की अनेक वस्तुओं की मैं कद्र कर सकू, लेकिन आज निभा लेने को ना कहूं। मेरा आध्यात्मिक स्वातंत्र्य मेरे लिए मुख्य है। उसे धोखा दिया ही न जाए। हम हिमालय, सह्याद्रि जैसे पर्वत और गंगा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, कृष्णा, कावेरी जैसी नदियों के भक्त हैं। मेरी परम्परा और तुम्हारी परम्परा में इतना साम्य है कि मानो हम एक ही आध्यामिक परिवार के हैं । तुम्हारे गुरुजी हमारे इस संबंध को आशीर्वाद देते हैं, वह कम संतोष की बात नहीं। अब एक मुख्य बात तुम लिखती हो, "जहां कहीं खराब दृष्टिगोचर होता है वहां चक्षु बन्द कर देती हैं, उस ओर दुर्लक्ष्य करती हूं।...आदि । भक्तों के लिए यह ठीक है। लेकिन जिसने संस्कृति की इतनी बड़ी बपौती पाई' वह ऐसा "स्वार्थी तटस्थभाव" स्थापित नहीं रख सकता। हमारी संस्कृति की सेवा हम न करें, तो उस घर में रहने का हमें अधिकार है ? कूड़ा-कचरा पुराना हो या नया, घर में रहनेवाले को उसे दूर करने के धर्म का पालन करना ही होगा। स्वामी विवेकानन्द ने अपने जमाने के सुधारकों के सामने अपनी कलम चलाई। अपनी संस्कृति की आत्मरक्षा के लिए उस समय वह जरूरी था, क्योंकि विदेशी राज्य के नीचे हम गुलाम अवस्था में थे। विवेकानन्द की मानसिक शक्ति के लिए आदर रखें, लेकिन हमारी ३००/ समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy