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को भी पीछे रख दें। इसलिए मैंने तुमसे दुबारा पूछा है । संस्था में काम की दृष्टि से कमजोर लोगों को भर्ती करने से हमेशा सहन करना पड़ता है। लिए हुए मनुष्य को छोड़ने की इच्छा नहीं होती। इसलिए लेने में खास जांचना पड़ता है। तुम्हारी सिफारिश है इसलिए अधिक विचार नहीं करता।
दसरी एक दिक्कत है। हमारे यहां सामान्य रसोड़ा नहीं है। प्रत्येक को अलग-अलग पकाने में आपत्ति नहीं है, लेकिन सुविधा देनी कठिन है। अब रसोड़ा खोले बिना चारा नहीं है। लेकिन उसे चलावे कौन ? ब्रजलालभाई जीवित होकर आवें तो है।
श्री ओमप्रकाश को मंजरअली के यहां क्यों नहीं भेजा ? वह अगर होनहार हो तो में उनको स्वोकारने को तैयार हूं।
चि० अंबा को सप्रेम शुभाशीष, इंदिरा, गार्गी, नर्मदा इनको भी प्यार और शुभाशीष ! इनको भी मेरे जयवेद भगवान कहोगे। तुम्हारी तबीयत अच्छी होगी।
काका के सप्रेम आशीष
जेठालाल जोषी को
२० अकबर रोड
नई दिल्ली
२-११-४६ प्रिय जेठालाल,
ठीक नुतन वर्ष के दिन आपका ३१-१० का कार्ड मिला। मेरी बात ऐसी है कि मैं याद तो बहत लोगों को करता हूं, किन्तु जिन-जिनके पत्र आते हैं उनको भी बड़ी मुश्किल से उत्तर लिख सकता हूं। सच तो यह है कि उन सबको भी उत्तर दे नहीं पाता हूं। आपका पत्र पढ़कर पुराने संस्मरण ताजे हो गए। आप जिन काम को ऋण' बताते हैं, वह ती आपका निष्काम कर्म ही है। ऋण तो मेरे सिर पर बढ़ता जाता है। किन्तु प्रेम का ऋण कोई कभी भी चुका सकता है ?
मेरे मन में एक ख्याल बैठ गया था कि मेरा आयुष्य ६३ वर्ष का ही है। वेल्लोर जेल में जब २० दिन के उपवास मैं आसानी से कर सका तब विनोबा ने कहा कि "६३ वर्ष के अंत में मर जाने के ये लक्षण नहीं दीखते !" मैंने कहा “ऐसा ही है तो कर देंगे पास दो-चार वर्ष का सप्लीमेंटरी बजट।"
मैंने सोचा था कि ६३ वर्ष पूरे होते ही पू० बापूजी से कहकर निवृत्ति मांग लूंगा। मैंने बापूजी से कहा भी था कि "मुझे निवृत्त होने दीजिए। काम का बोझा सिर पर नहीं होगा और संस्था चलाने की जिम्मेदारी नहीं होगी तब निवृत्ति में दुगुना काम कर दूंगा। लिखूगा, पढुंगा, चारों ओर स्वच्छन्द घूम सकूगा, व्यक्ति को और संस्थाओं को सलाह-परामर्श दूंगा। गांधी तत्त्वज्ञान का विवरण करूंगा। आराम
१. काकासाहेब के गुजराती साहित्य के संग्रह तथा सम्पादन में सहयोगी ।
पतावली | २६१