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अधिकतर तिलक महाराज के अनुयायी थे और प्राध्यापक नरम दल के 'गोखले' को मानने वाले थे। इसलिए विद्यार्थियों और प्राध्यापकों के बीच कुछ-न-कुछ विवाद चलता रहता था। मुझे उससे दूर रहने की सलाह दी गयी थी।
काकासाहेब के साथ मेरी मित्रता कालेज के दिनों से चली आ रही है। उसके बाद हम १९१३ में मिले, जबकि मैं मुजफ्फरपुर (बिहार) कालेज में प्राध्यापक था और काकासाहेब ब्रह्मचारी दत्तात्रेय बन चके थे। उन दिनों यह असाधारण बात नहीं थी। बहुत से राजनीतिज्ञों ने पुलिस की निगरानी से बचने के लिए नाम और वेशभूषाएं बदल रक्खी थीं। काकासाहेब के साथ एक युवक था, जो स्वामी आनंद के नाम से जाना जाता था। उसी साधु ने बाद में 'नवजीवन' प्रेस के व्यवस्थापक के तौर पर काम किया और गांधीजी के 'यंग इंडिया' नामक पत्न का संपादन भी किया।
हम दोनों ने पशुपतिनाथ के दर्शनार्थ नेपाल की यात्रा की। उन दिनों बाहरी व्यक्तियों के द्वारा नेपालयात्रा निषिद्ध थी। लेकिन जो हिन्दू-भक्त यात्री शिवरात्रि पर पशुपतिनाथ के दर्शनार्थ जाते थे, वे छः दिन ठहर सकते थे।
उसके बाद जब भी छट्रियां मिलीं, हम तीनों ने मिलकर हिमालय की यात्रा की और गंगोत्रीजमनोत्री गये, जो कि उन दिनों मुश्किल तीर्थ-स्थल थे, क्योंकि वहां पैदल ही जाया जाता था। यह सन् १९१४ की बात है। १९१५ में हम दोनों ब्रह्मदेश गये और रंगून में गांधीजी के घनिष्ठ मित्र डा० मेहता के मेहमान बने।
उसके बाद कुछ साल तक हम नहीं मिल पाये। फिर 'असहयोग आन्दोलन' के समय मिले। उस समय काकासाहेब साबरमती आश्रम में बुनियादी शाला के आचार्य थे। १९२३ में सरदार ने मुझे गुजरात विद्यापीठ के महाविद्यालय कालेज का भार सौंपा। गांधीजी उस संस्था को ग्रामीण संस्था बनाना चाहते थे। इसलिए १६२७ में मैंने आचार्य-पद से त्यागपत्र दे दिया और वह स्थान काकासाहेब ने संभाला, क्योंकि वे उन दिनों गांधीजी के विचारों के अनुरूप 'ग्राम-पुननिर्माण' योजना को साकार रूप प्रदान करने में मुझसे ज्यादा सक्षम थे।
उसके बाद हमारे रास्ते अलग-अलग रहे, किन्तु संबंध बने रहे। कुछ वर्षों के बाद काकासाहेब ने महाविद्यालय छोड़ दिया, क्योंकि उनमें एक संस्था में और एक स्थान पर टिके रहने की आदत नहीं है। वे सदा से परिव्राजक रहे हैं । इसके बाद तो वे राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े।
काकासाहेब गुजरात में बहुत साल रहे और वहां की भाषा और साहित्य का ज्ञान अर्जित किया। वे तीन भाषाएं -मराठी, गुजराती, हिन्दी- धाराप्रवाह लिख सकते हैं। उनकी पुस्तकें पढ़ने में रोचक और ज्ञानपूर्ण हैं। उनके हिमालय और गंगा माता के विवरण अभूतपूर्व हैं। उनका गुजराती भाषा में विशिष्ट योगदान है।
आजकल वे 'गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा' के प्रमुख स्तंभ हैं और दिल्ली में ही रहते हैं।
काकासाहेब का ६५वां जन्मदिन आ रहा है। उम्र के कारण कई कठिनाइयां होते हुए भी वे अपने कार्य में रत हैं।
यही एक संक्षिप्त-सी रूपरेखा है उस मनुष्य की, जो कि एक सच्चा आजीवन मित्र रहते हए राष्ट्रीय क्षेत्र में कोई सरकारी पद ग्रहण न करते हुए भी, राष्ट्रीय आन्दोलन में पूर्णतया संलग्न रहा है।
मैं काकासाहेब के शतायु और उससे भी अधिक आयु पाने की कामना करता है।
२२ / समन्वय के साधक