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________________ समन्वय के उद्गाता दादा धर्माधिकारी ऑयजक वॉल्टन की एक किताब छुटपन में पढ़ी थी। एक वाक्य याद आ रहा है--"दी एप्रीसियेशन ऑफ म्यूजिक इज लार्जली दी रिजल्ट ऑफ लिबरल एजूकेशन।" संगीत समझने के लिए उच्च शिक्षण की आवश्यकता है। इसलिए अकसर रेडियो और टेलिविजन पर पक्के गाने सुनने वाले कम होते हैं। चित्रपटसंगीत के उपभोक्ता बहुत होते हैं। उसी प्रकार महान व्यक्तित्व को समझने के लिए स्वयं अपने व्यक्तित्व में प्रगल्भता चाहिए।श्रृंगार की भाषा में कहें तो लैला की खूबसूरती देखने के लिए मजनू की आंख चाहिए । यों तो किसी भी दूसरे मनुष्य को पूरी तरह समझना असंभव है। एलेकसिस कुरेल ने एक किताब लिखी है, 'मैन दी अननोन' । उसकी बात पते की है। फिर भी हम एक-दूसरे से व्यवहार तो करते ही हैं। सम्बन्ध के बिना जीना असंभव है। इसलिए हम अपने पड़ोसी और अन्य सम्बन्धियों की एक प्रतिमा गढ़ लेते हैं और उस प्रतिमा के साथ ही हमारा सारा व्यवहार होता है। इसी प्रकार महान व्यक्तियों की भी प्रतिमाएं हमारे चित्त पर अंकित होती हैं। उन प्रतिमाओं के आधार पर हम अपना जीवन बनाते हैं ।महान व्यक्तियों को पूरी तरह समझना जितना मुश्किल है,उतना ही उनकी प्रतिमा बना लेना आसान है। जो संगीतज्ञ मूर्धन्य होते हैं, उनके संगीत में शास्त्र का जो अंश होता है, उसे मैं खाक नहीं समझता; लेकिन उनकी आवाज की लोच और राग मुझे मुग्ध कर लेती है। इसके लिए संगीत के शास्त्र के ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं होती। महान व्यक्तियों के लिए भी यही लागू है। अन्धा भी उनकी महानता को देख सकता है और अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनकी प्रतिमा अपने लिए गढ़ लेता है। पूज्य काकासाहेब कालेलकर की ऐसी एक प्रतिमा मैंने अपने लिए गढ ली है। जहां तक मुझे याद है, मैंने काकासाहेब को नागपुर में १९२१ में पहले-पहल देखा था। उस समय मैं नागपुर की राष्ट्रीय शाला में असिस्टेंट मास्टर था। काकासाहेब खास तौर से राष्ट्रीय शालाओं का मुआयना करने आये थे। बापूजी ने उन्हें भेजा था। उन दिनों नागपुर में महात्मा भगवानदीनजी एक असहयोग आश्रम चलाते थे। महात्मा भगवानदीनजी ही उसके अधिष्ठाता थे। उसी आश्रम में काकासाहेब ठहरे थे। उस समय वे गांधी टोपी लगाते थे। पोशाक बिल्कुल सादी, लेकिन साफ-सुथरी थी। मुझे ऐसा लगा कि वह पोशाक उनके व्यक्तित्व की प्रतिबिम्ब थी। सादगी में उदात्तता थी। उनसे मिलने के बाद मुझपर उनकी विद्वत्ता की छाप पड़ी। काकासाहेब एक चतुरस्थ विद्वान हैं। यह उनकी प्रतिमा आज भी मेरे चित्त पर अंकित है। उनकी बुद्धि के लिए जीवन का कोई क्षेत्र अविषय नहीं है और न अछूता रहा है। उन दिनों काकासाहेब ने हमारी शाला में एक भाषण किया। उसमें उन्होंने एक बात कही, जो मुझे आज भी याद है। उन्होंने कहा कि मैं अंग्रेजी कविता पर आशिक हैं। अंग्रेजी साहित्य का रसिक हं, फिर भी तुम लोगों से यह आग्रह करने आया हूं कि तुम लोग अंग्रेजी का बहिष्कार करो। इस बहिष्कार का प्रतिपादन उन्होंने बड़े पुरजोर शब्दों में किया। मैं शुरू से अंग्रेजी के बहिष्कार का विरोधी रहा हैं। उन दिनों तो मैं राष्ट्रीय पाठशाला में अंग्रेजी ही पढ़ाता था और बहुत लोकप्रिय शिक्षक था। काकासाहेब से मैंने अपनी भूमिका का नम्रतापूर्वक निवेदन किया। उनके मन में तीव्रता होते हुए भी उन्होंने मेरी बात बड़ी उदारता से सुन ली। इस बौद्धिक उदारता को मैं बुद्धि-निष्ठा का प्रमुख लक्षण मानता हं। काकासाहेब के उसी प्रवास में मैं उनके व्यक्तित्व : संस्मरण | २३
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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