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अंग्रेजों के दिनों में सरकार ने उन्हें पंजाब में रहना मना किया था तब वे वर्धा आकर गांधीजी के पास रहे थे। उनके परिवार की एक लड़की और एक लड़का भी वहां आकर रहे थे। तब हम सब लोग सुबह की प्रार्थना के बाद गांधीजी के साथ घूमने जाते थे। गांधीजी ने सोचा कि इतने लोग रोज घूमने साथ आते हैं। इनसे कुछ सेवा लेनी चाहिए। वर्धा की जमीन पथरीली। छोटे-बड़े खेतों में भी पत्थरों की कमी नहीं। गांधीजी ने कहा, 'यहां तक घूमने आते ही हैं तो छोटे-छोटे पत्थर उठाकर महिलाश्रम में ले जाएंगे। अच्छा-सा ढेर होगा। फिर इन पत्थरों का कुछ करेंगे ही।" हरएक के हाथ में पत्थर दीखने लगे। कुछ हाथ-रूमाल में पत्थर बांध के ले चले । मैं अपने साथ दो छोटी थैलियां लेके चला। दोनों हाथों में पत्थरों की थैली लेकर चलने में समतुला का बड़ा आनंद आता था। बादशाह खान सबसे बड़े । वे तो अपनी शर्ट में ही पत्थर लेकर दो हाथों से उठाते थे। पत्थरवालों का ऐसा जुलस महिलाश्रम की ओर बढ़ता देखने में बड़ा मजा आता था।
जब घूमकर गांधीजी लौटते थे तब तौलिया लेकर उनके पांव साफ करने का काम माता कस्तूरबा करती थीं। बादशाह खान ने वह काम अपने हाथ में ले लिया। बड़े भीम के जैसे सरहद के गांधी को इस तरह महात्माजी की चरण-सेवा करते देखने के लिए स्वर्ग के देव भी इकट्ठा होते होंगे।
उसके बाद सब लोगों का नाश्ता होता था। गांधीजी एक अच्छा-ताजा परिपक्व सेब बादशाह खान को देते थे। फल काटकर खाना बादशाह को नापसंद था। बड़ा फल हाथ में ले लिया और दांतों से काटकर खा लिया।
कुछ दिनों के बाद बादशाह खान के भाई डॉ० खानसाहब आए। बड़े मीठे और मिलनसार । दोनों भाइयों से मेरी अनेक विषयों पर चर्चा होती थी। मैं तुरंत देख सका, दोनों भाइयों के स्वभाव में बड़ा फर्क है, लेकिन दोनों भारत की आजादी के लिए मर-मिटने को एक-से तैयार । बादशाह खान कहते थे कि जो कौम आजाद नहीं है उसका कोई मजहब ही नहीं है । आजाद बनना यही सबसे पहला फर्ज है।
हमारी आशादेवी ने बादशाह खान के लड़के-लड़कियों को संभालने का जिम्मा ले लिया।
थोड़े ही दिनों में गांधीजी सरहद प्रांत में जानेवाले थे। लेकिन बम्बई के गवर्नर ने बादशाह खान के एक मामूली भाषण का लाभ उठाकर उन्हें जेल भेज दिया और गांधीजी का सरहद जाना उस समय स्थगित हो गया।
___ बाद में गांधीजी सरहद प्रांत में गए सही। वहां का सारा बयान श्री महादेवभाई के मुंह से मैंने सुना था।
भारत के प्रपिता दादाभाई नौरोजी की लड़की खुरशीद बहन को सब जानते ही हैं । शरीर से दुबलीपतली लेकिन रूहानी ताकत में बड़ी वीरांगना। सरहद के पठानों के बीच वह निर्भयता से जाकर रहीं। बादशाह खान उनकी रक्षा के लिए अपने एक-दो खुदाई खिदमतगार देनेवाले थे। खुरशीद बहन ने कहा, "पठान तो सब मेरे भाई हैं । बहन को भाइयों से रक्षा पाने की जरूरत ही क्या ?" वह तो पठानों के बीच निर्भयता से रहती थीं और उनकी सेवा करके उन्हें नसीहत भी देती थीं। बहन का वह अधिकार था। जहां तक मुझे याद है सरकार बहादुर ने खुरशीद बहन को भी वहां जेल भेजा था।
सरहद के पठान खुरशीद बहन से कहते थे, "बड़ी अजीब सरकार है यह ! मारामारी, खून और डकैती करनेवाले लोगों को सरकार जेल में भेजे तो हम समझ सकते हैं लेकिन ऐसी बुराई को रोकनेवाले और सब का भला करनेवाले नेक लोगों को यह सरकार जेल में भेजती है। आखिर यह सरकार क्या चाहती है ?"
बहुत दिनों के बाद मैं बादशाह खान से दिल्ली में मिला। मुझे दिल्ली और आसपास के सब स्थान देखने थे। बादशाह खान को भी सबकुछ देखना था। मोटर का प्रबंध हुआ और हम सब चले।
२७२ / समन्वय के साधक