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________________ बनतीभेद भले ही हों, और बुद्धिवादी गोरों की धर्मनिष्ठा चाहे जितनी शिथिल हई हो, सबके-सब ईसाई धर्म के असर के नीचे ही हैं। आर्थिक और राजनैतिक समता के खयाल से जो लोग साम्यवादी हुए हैं, उनका तो धर्ममात्र के प्रति विरोध है। धर्म के बारे में जिनके मन में पूरी-पूरी उपेक्षा जम गई है, ऐसे लोगों की संख्या जगह-जगह बढ़ रही है। यह सब जानते हुए भी हम कह सकते हैं कि यूरोप-अमेरिका के गोरे लोगों का धर्म ईसाई धर्म ही है। हमने ऊपर कहा कि दुनिया में आज प्रधानता है राजनीति की, क्योंकि सारा सामर्थ्य राजनीति के वश ही रहता है। इस राजनीति पर सच्चा प्रभाव है सामर्थ्यपरायण अर्थनीति का। कुछ प्रभाव है साम्यवाद, पंजीवाद आदि वादों का।और छिपा प्रभाव है गोरे, पीले, काले और गेहएं-- अलग-अलग रंग के वंशभेद का। आज अगर कोई सार्वभौम कल्पना अप्रतिष्ठित हुई है, तो वह है धर्मों की, धर्म-जीवन की। सुधरी हुई दुनिया धर्म को आगे नहीं करती। वंश को भी आगे नहीं करती। लेकिन सामान्य मनुष्य धर्म का विचार किये बिना नहीं रहता। आज की हालत देखते लोगों में अपने-अपने धर्म के नियम के अनुसार जीने का आग्रह कम है, धार्मिकता पर जोर नहीं है, लेकिन अपने-अपने धर्म की जमात के प्रति निष्ठा अभी भी कायम है । वह पहले से कम नहीं हुई है। ईश्वर-निष्ठा सिर्फ मानने की बात रही है । धर्मजीवन व्यक्तिगत आग्रह की खानगी या निजी बात बनी है। जमात, सम्प्रदाय, मिल्लत अथवा फिरका-परस्ती ही ज्यादा है। इसी का एक रूप है कम्युनालिज्म अथवा जातिनिष्ठा। इस अर्थ में गोरे लोगों की अपनी ईसाई जमात के प्रति निष्ठा सबसे ज्यादा है। आज दुनिया में अपनी जमात की संख्या बढ़ाने की कोशिश ईसाइयों में है। ऐसी ही कोशिश मसलमानों में पायी जाती है और उनकी देखा-देखी बौद्धों में भी वह कुछ-कुछ आने लगी है, हालांकि उन दोनों की अपेक्षा कम है। औरों की संख्या वृद्धि से डरने लगे हैं हिन्दू और यहूदी। और जिनको धार्मिक जमातों की होड में उतरने की तनिक भी इच्छा नहीं है ऐसी है सिर्फ जरथुस्त्री या पारसी कौम। इस पारसी कौम में आत्मरक्षा की वृत्ति है । वह चाहती है कि पारसियों से में कोई धर्मान्तर न करे । लेकिन वह यह भी चाहती कि गैर पारसियों में से (जूददीन में से ) शादी के द्वारा या अन्य किसी तरह से कोई अपनी कौम में न आवे। सनातनी हिन्दुओं की वृत्ति भी यही है (अथवा थी)। फरक इतना ही है कि सनातनी हिन्दू कभीकभी नाराज होकर भ्रष्ट लोगों को अपनी कौम से निकाल देते हैं। पारसी लोग धर्मभ्रष्ट लोगों को सजा करेंगे, लेकिन बहिष्कृत नहीं करेंगे। यहूदियों की भी शायद यही वृत्ति होगी। दुनिया के देशों में अथवा राष्ट्रों में प्रधानता राजनीति की है। उसमें सामर्थ्य, सम्पत्ति और संख्या तीनों का खयाल जबरदस्त है। क्योंकि जीवनकलह में, संघर्ष में, होड़ में, युद्ध में चारित्र्य का अथवा धार्मिकता का नहीं किन्तु सामर्थ्य, सम्पत्ति, संख्या और संगठन का महत्व होता है। राजनीति में एकम होता है राष्ट्र का (अर्थात् शासन अथवा सरकाररूपी तन्त्र द्वारा संगठित जमात का ) जब यही दृष्टि धार्मिक जमातों में और वांशिक जमातों में आती है, तब उस दृष्टि को हम कहते हैं धर्मनीति अथवा वंशनीति । पश्चिम के गोरे लोगों में राजनीति अथवा राष्ट्रनीति के साथ-साय छपे ढंग से धर्मनीति और वंशनीति होती ही है। लेकिन अब उसकी चर्चा खुले तौर पर नहीं होती। गोरे लोग जानते हैं कि गोरे लोगों की विचार : चुनी हुई रचनाएं | २५७
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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