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________________ गुणों का अनुशीलन आसान नहीं होता। धर्मों के अंदर रहे हुए दोषों का अभिमान रखना, और जोरों से उसका समर्थन करना, मनुष्य के लिये आसान है। इसलिये सब धर्मों के अंदर पायी जानेवाली धार्मिकता को (आध्यात्मिकता को) बढ़ावा दीजिये । और अलग-अलग सब धर्मों को छोड़ दीजिये। ऐसा कहनेवाला सज्जनवर्ग दुनिया में बढ़ रहा है। (६) इस नीति को असंतोषकारक माननेवाले लोग भी हैं। वे कहते हैं कि सब धर्मों में से ढूंढ़ी हुई आपकी धार्मिकता निष्प्राण बनती है। केवल तात्त्विक सूत्र के रूप में ही उसे हम रख सकते हैं। मनुष्य जीवन को प्रेरणा देकर, उसके हाथों लोकोत्तर कार्य कराने का सामर्थ्य उस निर्जीव धार्मिकता में आ नहीं सकता। पानी गरम करके उसकी भाप का फिर से पानी बनाने से शुद्ध पानी मिलता है सही, किन्तु उसमें न कोई दोष रहता है, न कोई गुण । उसमें अगर प्राण होता, खास ताकत होती, तो लोग खास-खास झरने का पानी मंगवाकर नहीं पीते। एक-एक धर्म में जो ताकत है वह सब धर्मों से ढूंढ़कर निकाले हुए दृढ़भाजक में नहीं होती। (७) सब धर्मों की सब बातें, पक्षपातरहित इकट्ठा करने से जो खिचड़ी धर्म बनता है उसकी ओर देखने को भी कोई तैयार नहीं होगा । उस खिचड़ी धर्म को हम धर्मों का लघुत्तम साधारण भाज्य कह सकते हैं। ऐसी चीज धर्मों के संग्रहालय में रखने लायक होगी। समाज में उसका प्रचलन नहीं होगा। धर्मबहल इस देश में इन धर्मों का क्या किया जाये? इस प्रश्न का हल, लोगों ने अपने-अपने ढंग से सोचा है, ढूंढ़ा है और आजमाया है । और आज भी ढूंढ़ रहे हैं। सर्व-धर्म-समभाव अथवा समन्वय की भूमिका इन सबसे अलग है। (८) विश्व समन्वय की बुनियाद किसी एक धर्म की विशेष प्रतिष्ठा पर स्थापित हो नहीं सकती। सब धर्मों की एक-सी प्रतिष्ठा का स्वीकार करके ही हम सबका संगठन कर सकते हैं। हरएक धर्म की अपनीअपनी अलग ख़बी तो होगी ही। ऐसा नहीं होता तो सब धर्मों में आदन-प्रदान के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। सब धर्मों में चंद बातें एक-सी समान और सर्वग्राह्य होती हैं, लेकिन हरएक धर्म में कुछ ऐसी बातें हैं जो उसकी निजी ही हैं। दूसरे धर्मों में वह चीज पूरी मात्रा में प्रकट नहीं हुई होगी। दूसरे धर्म ऐसी खासियतों का विशेष अध्ययन करेंगे, और उनमें से लेने लायक जो कुछ दीख पड़े अपने ढंग से अपने धर्म में ले लेंगे। समानभाव से सबका अध्ययन करते, हमारा उद्देश्य धर्मों के अंदर होड़ या प्रतिस्पर्धा बढ़ाने का नहीं, किंतु परस्पर परिचय, आत्मीयता और सहयोग बढ़ाकर सब धर्मों के लोगों को जहां तक हो सके सामाजिक जीवन में ओतप्रोत कराने का हमारा प्रयत्न रहेगा। हम लोग एक-दूसरे के त्योहार में शरीक होंगे, अपने त्योहार में दूसरे को बुलायेंगे। संकट के समय एक-दूसरे की सहायता करेंगे। धर्म-भेद के कारण अपने लोगों के लिए अभिमान, और दूसरे धर्म के बारे में परायापन' हम रहने नहीं देंगे। हिंदुओं के लिए ये सारी प्रवृत्ति बिलकुल आसान और पोषक है। हिंदूधर्म ने कभी नहीं कहा है कि हमारा ही धर्म सच्चा और दूसरा धर्म गलत है। असल में हिंदूधर्म कोई एक पंथ या फिकरा नहीं है। एक ही धर्म संस्थापक, एक ही धर्म-ग्रंथ और एक ही प्रकार की धर्म-साधना के द्वारा उद्धार माननेवाले पंथ असंख्य हैं। सच्चा सनातन धर्म कहता है कि ऐसे सारे धर्म संस्थापक हमारे ही हैं, हमारे लिये पूज्य हैं। हरएक के जीवन में से हमें कुछ-न-कुछ प्रेरणा मिलेगी ही। उसी तरह, हरएक धर्मग्रंथ का हम सहानुभूति और आदर से अध्ययन करेंगे। धर्मवचनों का जो उदार और व्यापक अर्थ होता हो उसी को लेंगे। और धर्म-साधना तो जीवन-साधना होने के कारण हरएक व्यक्ति को अलग-अलग साधना अनुकूल आ सकती है। जिन्होंने दीर्घकाल तक धर्म-साधना चलायी है उनका अनुभव है कि हरएक आदमी के जीवन में भी विचार : चुनी हुई रचनाएं | २५५
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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