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________________ आज सारी दुनिया को यह विश्वरूप-दर्शन हो रहा है। इसलिए हम आशा करते हैं कि मानव-समाज समन्वय के लिए तैयार होजायगा। विनाश-शक्ति की अपेक्षा जीवन-शक्ति अधिक प्रभावशाली साबित होगीऐसे आस्तिक विश्वास से ही हम समन्वय का प्रारम्भ करने को उद्युक्त हुए हैं। विश्व-समन्वय की विशेषता अपने-अपने धर्म की सुन्दरता, महत्ता और उसकी खास-खास खूबियां समझानेवाले लोग चाहे जितने मिल सकते हैं। (१) सर्व-धर्म-समन्वय के नाम से एक धर्म के प्रचारकों को या प्रतिनिधियों को बुलाकर 'अपने-अपने धर्म की स्तुति करने का काम' हम उनसे ले सकते हैं। इस तरह से सभाजनों को, श्रोताओं को अच्छी जानकारी भी मिलती है। कभी-कभी ऐसे लोगों के मुंह से वही-की-वही बातें सुन-सुनकर मनुष्य ऊब भी जाता है। असल बात यह है कि हरएक धर्म की खूबियां उस धर्म के अभिमानी के मुंह से सुनने का काम भारत में काफी हो चुका है। अपने-अपने धर्म की खूबियां और श्रेष्ठता बतानेवाला अभिमानी साहित्य भी चाहे जितना मिल सकता है। धर्मों का ज्ञान फैलाना पुण्य कर्म है । लेकिन वह काम बहत हद तक हो चुका है। (२) मिशनरी और मुल्ला जैसे चंद उपदेशक, दूसरों के धर्मों के बारे में जानकारी कम रखते हुए दूसरों के धर्मों की भली-बुरी निंदा करने में अपने धर्म की सेवा समझते थे । ऐसा प्रचार हमारे देश में किसी समय काफी हो चुका है। अब यह पहले के जैसा नहीं चलता है। लेकिन खानगी वार्तालाप में केवल दूसरे धर्म की ही नहीं, अपने भी धर्म की दूसरी जाति को दूसरे फिरके को या दूसरे पंथ को लेकर निंदा करनेवाले आज भी पाये जाते हैं। 'उनके जैसे हम नहीं हैं ऐसा सूचित करने का, और अपनी श्रेष्ठता लोगों के मन पर ठसाने का काम बहुत से लोग, बड़े चाव से करते आये हैं। हरएक जाति के और पेशे के दोष दिखानेवाले निंदावचन और कहावतें हरएक भाषा में पायी जाती हैं। (३) तटस्थ भाव से अध्ययन करके हरएक धर्म की तात्त्विक खूबियां और उनके सामाजिक जीवन के बारे में लिखनेवाले लोग भी काफी मिलते हैं। (४) अपने-अपने धर्म के और धर्मसमाज के दोष पहचानकर, उन्हें सुधारने की कोशिश करनेवाले, और अपने ही धर्म के लोगों को इकट्ठा करके उत्कटता से उन्हें समझानेवाले सुधारक लोग भी, हर समाज में थोड़े-थोड़े होते हैं। इनकी संभाल-संभालकर बातें करें तो लोग स्वजनोचित उदारता से ऐसी बातें सुनने को तैयार रहते हैं और धन्यवाद भी देते हैं। लेकिन बातें अगर इकतर्फा हुईं, और दोषों का ही वर्णन दिन रात चला, तो समाज इनसे ऊबकर उनका बहिष्कार करता है। या तो उनका मुंह बंद करते हैं या उनको भगा देते हैं । ऐसे टीकाकार को मार डालने के किस्से हमारे देश में नहीं हैं। (५) हरएक धर्म में गुण दोष दोनों होते हैं। यह देखकर और पहचानकर, दोषों को टालने की कड़वी बात कौन चलावे, ऐसी कठिनाई महसूस करनेवाले लोग कहने लगे हैं कि इन सब धर्मों को छोड़ दीजिये। २५४ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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