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है उसे कहते हैं समन्वय । समवय कोई दर्शनिक वस्तु नहीं है। समन्वय है सर्वकल्याणीकारी सर्वोदयी मनोवृत्ति और शुभंकरी प्रवृत्ति।
जहां सर्वत्र संघर्ष चल रहा है और संहार की तैयारियां बढ़ती जा रही हैं वहां केवल न्याय की बात दुनिया को बचा नहीं सकती। न्याय करे भी कौन ? न्याय के लिए उभय कल्याणकारी तटस्थवृत्ति चाहिए। जब रागद्वेष-मूलक संघर्ष बढ़ते हैं तब सबके सब लोग पक्षकार बनते हैं। कोई इस तरफ झुकता है, कोई उस तरफ झुकता है। न्याय की बात सब करते हैं लेकिन सर्वकल्याणकारी न्याय समझने की शक्ति गायब हो जाती है। लोग कहते है “एक-दूसरे से मिलो। दिल की बातें साफ-साफ कह दो। एक-दूसरे की दृष्टि समझ लो और कुछ समझौता करो।"
यह तरीका है तो अच्छा लेकिन दो में से एक भी दिल से समझौते के लिए तैयार न हो तो समझौते की बातें आगे कैसे बढ़ेगी? फिर आती है पंचायत की बातें । इसमें भी कठिनाई वही होती है। पंचायत का न्याय मन्जर न होने पर तटस्थ न्यायाधीशों का फैसला मन्जर करना यही एक मार्ग रहता है, जिसमें न्यायाधीश के चुनाव का सवाल आता है । अब सारा मामला नसीब के हवाले किया जाता है। जब कोई निर्णय नहीं हो सकता तब रुपया अथवा पैसा उछालकर निर्णय किया जाता है । इसे अंग्रेजी में 'टॉस' कहते हैं।
जहां सर्वस्व की होड़ चलती है, वहां बड़े-बड़े राष्ट्र और बड़े-बड़े धनी लोग टॉस ही न्याय अथवा निर्णय कैसे मान सकते हैं ? झगड़ा किसी न किसी रूप में चलता ही है और बढ़ता भी है।
इसलिए जहां कहीं मतभेद आया वहां समन्वय को काम में लाने की वृत्ति जगानी चाहिए। यह काम एक दिन का नहीं, न्यायालय का नहीं, किन्तु नित्य के जीवन की मनोवृत्ति और प्रवृत्ति का है।
किसी समय मनुष्य-स्वभाव को उन्नत करने का काम धर्म का था। धर्म के द्वारा मनुष्य की स्वार्थ, अहिंसा, असूया, अभिमान आदि मनोवृत्ति का संयम होता था और आत्मीयता, सेवा, त्याग आदि सात्विक शुभसद्गुणों का विकास होता था। लेकिन धर्म में साम्प्रदायिकता, संकुचितता और अभिमान घुस गये । धार्मिकता ही भ्रष्ट होने लगी। धर्म भी आपस में प्रथम चर्चा और झगड़ा करने लगे और अन्त में कुत्ते के जैसे लड़ने लगे।। आखिरकार लोग धर्माभिमान से ऊब आये और धर्म की प्रतिष्ठा भी डूबने लगी। धर्माभिमानी लोग व्यक्तिशः सदाचारी थे किन्तु जहां धर्माभिमान का सवाल आया तो अभिमानी, स्वार्थी और अन्धे बनने लगे । आगे जाकर व्यक्तिगत जीवन में भी शुद्धता की जगह दंभ ने ले ली। बाहर सफेद और अन्दर सड़ा हुआ ऐसा वर्णन धर्मों का और धर्मगुरुओं का सुनना पड़ने लगा। और अंत में धर्म ही मानव-जीवन में अप्रतिष्ठित होने लगा। किसी समय धर्म का प्रभाव राजनीति पर पड़ता था। अब धर्म हो गये राजनीति के आश्रित ।
ऐसी हालत में शुद्ध समन्वयवृत्ति को जाग्रत करना यही एकमात्र उपाय रहा। अगर हम सारे समाज में घुल-मिल गये और जगत की खतरनाक परिस्थिति समझाकर लोगों में परस्पर सहयोग की वृत्ति जगा सके, आत्मीयता का रोज-ब-रोज अनुभव करने लगे, तो संघर्ष का वायुमण्डल स्थापित होगा। लोगों को वही प्रिय लगेगा। समन्वय के लाभ लोगों के ध्यान में आयेंगे। जीवन की सुन्दरता का अनुभव होने पर उसी को लोग पसन्द करने लगेंगे।
यह परिवर्तन आसान नहीं है। लेकिन दुनिया ने संघर्ष का खतरा कितना बड़ा है-इसका अनुभव किया है । इसलिए समन्वय का प्रयोग कर देखने के लिए दुनिया तैयार हो रही है।
संघर्ष भी आज पहले के जैसा आसान कहां रहा है ? युद्ध छिड़ते ही लोग सहायकों को मदद में बुलाते हैं। सहायकों को मदद में दौड़ना ही पड़ता है और फिर तो हरएक बड़ा युद्ध विश्वयुद्ध बन जाता है, जिसका अन्त सर्वनाश ही हो सकता है।
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