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नहीं करता। 'सब मानव मिल करके एक विराट् मानव-समाज है। इसकी एकता मजबूत करनी चाहिए।' यह आदर्श तत्त्वतः सबको मान्य हुआ है।
इसी मिसाल से प्रेरणा पाकर हम भी घोषणा करना चाहते हैं उसी प्रकार सभी धर्म मिलकर एक आध्यात्मिक कुटुम्ब की रचना करते हैं।
अगर महावंशों का आपस-आपस में लड़ना अयोग्य है, असमीचीन है, हमारी मानवता को शोभा नहीं देता तो उसी न्याय से धर्मों के बारे में भी हम कह सकते हैं कि सब धर्म मिलकर एक आध्यात्मिक परिवार है, एक सांस्कृतिक महाकुटुंब बनता है। धर्मों का आपस में लड़ना, एक-दूसरे का विरोध करना, एक-दूसरे का नाश करने के लिए षड्यंत्र रचना यह सब आत्मनाशक है, और नामुमकिन भी है। मानव की संस्कृति की हस्ती के लिए घातक है।
हरएक धर्म में इतनी असंख्य अच्छी-अच्छी बातें हैं कि हमारे मन में हरएक धर्म के प्रति आदर ही होना चाहिए। हम आहिस्ते-आहिस्ते सब धर्मों के लोगों को एक-दूसरे के नजदीक लायेंगे और बता देंगे कि धर्मभेद होने के कारण समाजभेद होना जरूरी नहीं है।
यह काम आज इतना जरूरी हो गया है कि अनेक लोग अपने-अपने ढंग से इस दिशा में कमोबेश प्रयत्न करने लगे हैं। उनका हम अभिनंदन करें। ऐसे लोगों को ढंढ-ढंढकर उनकी प्रवत्ति में उनसे सहयोग करें। साल-भर में किसी एक दिन यह काम किया और संतोष माना ऐसा नहीं होना चाहिए। केवल शोभा का काम तुरंत पहचाना जाता है कि 'यह ऊपर का दिखावा ही है। वह अभिनंदनीय भले ही हो उससे हमें पूरा संतोष नहीं होना चाहिए। हम लोगों ने एक प्रवृत्ति चलाकर देखी। एक-एक धर्म के, एक-एक प्रचारक को बुलाकर उनसे अपने-अपने धर्म के बारे में व्याख्यान करवाये । प्रचारक खुशी से आये । बोलने का मौका मिला और उदारता की प्रतिष्ठा मिली तो ऐसा मौका कौन छोड़ देगा ? (इनमें भी चंद अंधे लोग अपना बड़प्पन आगे करने का और दूसरों को छोटा दिखाने का थोड़ा-थोड़ा प्रयत्न किये बिना नहीं रहते। इससे अगर चर्चा छिड़ी तो वाद-विवाद करने का उन्हें मौका मिलता है, और लोगों ने भलमनसी बरतकर चर्चा नहीं की तो अंधे प्रचारक मानते हैं कि हमारी जीत हो गयी।) जहां लोगों को अलग-अलग धर्मों के बारे में सचमुच जानकारी नहीं है और वैसी प्राप्त करने की लोगों में इच्छा है तो उस-उस धर्म के ज्ञाता लोगों को बुलाकर थोड़े में उनसे जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए सही। लेकिन उत्तम रिवाज यह होगा कि अगर मैं हिंदू हूं तो मैं पारसी, ईसाई अथवा इस्लामी धर्मों में मैंने क्या-क्या अच्छा पाया उसका आदरपूर्वक जिक्र करूं । और इस तरह उस-उस समाज को अपनाने की कोशिश करूं।
और एक सूचना है, सामान्य रिवाज है कि लोग त्योहार के दिन अपने रिश्तेदारों को और नजदीक के स्नेहियों को भोजन के लिए बुलाते हैं। रिवाज स्वाभाविक है । अच्छा है। और सार्वत्रिक है। इसमें हम एक इष्ट सुधार कर सकते हैं । त्योहार के दिन हम एक-दो या अधिक भिन्न धर्मी लोगों को अपना त्योहार मनाने के लिए और भोजन के लिए बुलाने का आग्रह रखें । उनके घर की और समाज की बातें उनसे पूछे। और इस तरह धीरे-धीरे दूर के लोगों को नजदीक लाने की कोशिशें करें। हम देखेंगे धर्मभेद तो ऊपर-ऊपर के हैं, अंदरूनी मानवी एकता तोसर्वत्र है । और दूर के लोगों के रस्म-रिवाजों में जो भिन्नता होती है, उसमें भी कई बातें समझने लायक होती हैं और उनमें भी चंद बातें लेने लायक भी लगती हैं।
अगर हमने तय किया कि दूर के लोगों को नजदीक लाना ही है। प्रेम और आत्मीयता का संबंध बढ़ाना है तो कई नयी-नयी चीजें हमें आपही आप सूझेंगी। परिस्थिति ही अनेक बातें सुझायेगी, और हमारा जीवन प्रसन्न और परिपुष्ट होगा।
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