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पाया। यज्ञ और तप, दान और सेवा, यही है मनुष्य का प्रधान धर्म । तप और यज्ञ के द्वारा तेजतत्त्व की उपासना करने के बाद वायु की बारी आई। वायु तो हमारा श्वास है, प्राण है । इस प्राण की उपासना करते-करते पूर्वज योग-साधना तक पहुंचे। प्राणोपासना हमारे वैदिक पूर्वजों की बहत बड़ी साधना थी। प्राणोपासक तेजस्वी था, वह कभी दीन होकर याचना नहीं करता था। प्राणोपासक कभी परास्त नहीं हुआ। आजकल हम शक्ति बढ़ाने के लिए पौष्टिक आहार लेते हैं, विटामिन खाते हैं। वजिश या व्यायाम करते हैं, स्नायु को मजबूत करते हैं, शुद्ध वायुसेवन द्वारा अपने शरीर को और खून को शुद्ध करते हैं। लेकिन मज्जा तन्तु की शक्ति बढ़ाने की साधना हम भूल गये हैं। मनुष्य का असली सामर्थ्य उसके स्नायूओं पर निर्भर है। वह शान्ति अगर क्षीण हुई तो उसे वापस कैसे लाना, यह लोग अब भूल गये हैं। हमारे पूर्वजों ने ब्रह्मचर्य और प्राणोपासना के द्वारा वह शक्ति बढ़ायी थी और उन्होंने अपनी आयु की मर्यादा में भी बृद्धि की थी। यह प्राणोपासना हमें फिर से ढूंढ़कर निकालनी होगी और उसका अनुशीलन बड़े पैमाने पर करना होगा। संध्यावंदन में जो सूर्योपासना आती है, वह भी प्राणोपासना ही है।
इसके बाद मनुष्य ने देखा कि सारे विश्व को घेरे हुए है आकाश । वह हमारे हृदय में भी है और सारे विश्व में भी फैला हुआ है। आकाश को देखकर आर्य मानस स्तंभित हो गया और उसने आकाश की उपासना जोरों से की। यह पंचभूतात्मक विश्व आकाश में ओत-प्रोत है । इसकी उपासना करने से स्थैर्य और आनंदक्य मिलेगा। यह देखकर उसने आकाश को ही अनंत का नाम दे दिया।
जिस तरह अंदरूनी उपासना में अहंकार के बाद आत्मा की प्राप्ति हुई, उसी तरह बाह्य उपासना में आकाश के बाद अक्षर-ब्रह्म की प्राप्ति हुई। जो बड़ा है, बृहत् है, बृहत्तम है, बृहत्तम है, वही है बह्म । बह्म से बढ़कर कुछ है ही नहीं।
जब मनुष्य की साधना अत्यन्त उत्कट हुई तब उसने पाया की अंतरतर और अंतरतम जो आत्मा उसने पाया और बृहत्तम ब्रह्म को पाया, ये दोनों एक हैं। तब उसने चिल्लाकर कहा, "अयम् आत्मा ब्रह्म।" यह हमारे उपनिषदों का प्रथम महावाक्य है। मनुष्य ने और भी एक चीज पायी । आत्मा को सचमुच पाते ही उसे परम आनंद प्राप्त होता है। इसी तरह परब्रह्म को पाते ही वैसा ही एक परम आनंद उसे मिलता है और वह बिलकुल निर्भय होता है। ब्रह्म का आनंद जिसने जान लिया, वह कभी भी और किसी से डरता नहीं, "आनंद ब्राह्मणो विद्वान न विभेति कदाचन।"
और जब उसने आत्मानंद और ब्रह्मानंद को पाया और दोनों की एकता अनुभव हुई तब उसे इस अदभुत अद्वैत का ज्ञानानंद प्राप्त हुआ। अगर कोई परमआनंद है तो अद्वैतानन्द ही है। इस अद्वैत ही को कहते हैं विश्वात्मैक्य। सारे विश्व के साथ अपना अभेद, अपना ऐक्य सब तरह से पाना, यही है सर्वश्रेष्ठ
पुरुषार्थ।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष से असली पुरुषार्थ नहीं है। पुरुषार्थ के उत्तम साधन होने के कारण उन्हें भी पुरुषार्थ कहते हैं । असली एकमात्र पुरुषार्थ तो विश्वात्मैक्य का आनंद पाना ही है।
यह जिसने पाया, उसका हृदय, उसका आशय बड़ा हो गया। वह हुआ ब्राह्मण । असली ब्राह्मण तो वही है, बाकी के सारे नामधारी ब्राह्मण हैं।
यह सर्वश्रेष्ठ और एकमात्र पुरुषार्थ जिसने नहीं पाया, उसकी दीनता, उसका दारिद्र्य कभी दूर नहीं होता। वह हमारी दया का पात्र है, कृपा का पात्र है। कृपा का पात्र होने से उसे कृपण कहा है। कृपण देता नहीं याचना करता है। परिग्रह की खोज में रहता है इसीलिए वह कृपण है। दान की खोज में दौड़ने वाले और दान का माहात्म्य गाने वाले ब्राह्मण उपनिषदों की भाषा में सचमुच कृपण हैं। मनुष्य जाति की इन दो जातियों
२४८ / समन्वय के साधक