SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निकलते, विदाई के समय दुःख भी होता है । लेकिन जेल से मुक्ति पाने का आनन्द उससे कम नहीं होता । 'इहलोक का जीवन पूरा करते मृत्यु का जो दुःख होता है— मरनेवालों को और औरों को - वह ऐसा ही होना चाहिए । विश्वात्क्य का आनंद उपनिषदों में शुरू से आखिर तक आत्मा और ब्रह्म की खोज है किसी इतालवी विद्वान ने कहा है कि वेद में जो 'तन्मय' जैसे शब्द आते हैं, उन्हीं पर से 'आत्मा' शब्द आया है। वह जो मुझमें है, वह है आत्मा । उपनिषदों में आत्मा की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से दी है। आनीति पाता है, आदत्ते लेता है, अन्ति खाता है सब कुछ, वह है आत्मा । सब कुछ पाता है, सब कुछ ग्रहण करता है, सब कुछ खा जाता है, वह है आत्मा । आत्मा की दूसरी व्याख्या 'अत्' धातु से की है (अत् सातत्य गमने ) । अखंड चलते रहना, जीते रहना, सतत होना, सतत कार्य करना, यह है आत्मा का स्वरूप । "यदाप्नीति यदादत्ते यच्चात्ति विषयान् इह, यच्चास्य सन्ततो भावः तस्मात् आत्मेति करित्यते," अगर जीवन में किसी चीज की खोज करनी है, किसी चीज को पाना है, किसीके द्वारा सब कुछ प्राप्त करना है तो वह आत्मा है । वही है देखने योग्य, सुनने योग्य, मनन करने योग्य और निदिध्यास करने योग्य उस आत्मा के दर्शन से, श्रवण से, मनन से और विज्ञान से सारे विश्व का रहस्य पाया जाता है। यह आत्मा हमारे अन्दर है, हमारे जीवन का सार है। पंचभूतात्मक सृष्टि उसीके अन्दर फंसी हुई है । मनुष्य ने जब अपनी खोज की तब इन्द्रियों के साथ, 'करण' के साथ, सहयोग करनेवाला एक अंदरूमी करण भी उसने पाया उसने उसे 'अंतःकरण' कहा। इस अंतःकरण को समझने की कोशिश करते चिल चित्तवृत्ति, मन, बुद्धि, अहंकार आदि उत्तरोत्तर और सूक्ष्म तत्त्वों को उसने पहचान लिया और बाद में इन सबके परे जो है, अथवा अन्दर जो है, उसने उसे 'अंतरतर' कहा। वही थी आत्मा । 1 जिस तरह मनुष्य ने अपने अंदर खोज आरंभ की, उसी तरह और शायद उसके पहले उसने बाह्य सृष्टि का रहस्य समझने की कोशिश की। सबसे पहले उसका ध्यान गया पृथ्वी तत्त्व पर उसीपर हम खड़े रहते हैं वही हमारा आधार है। पृथ्वी के बाद उसने देखा पानी उसका कार्य देखते मनुष्य ने उसीको 'जीवन' कहा। पानी के बिना हम जी नहीं सकते हैं। पानी समस्त जीव-सृष्टि का आधार है। यह जो बाह्य सृष्टि में पानी दीख पड़ता है, इससे भी सूक्ष्म पानी उसने देख लिया, जिसमें पंचमहाभूतात्मक सारी सृष्टि पैदा हुई है। पानी की उपासना के बाद उसने तेज को लिया। सूर्य, चन्द्र, विद्युत और अग्नि चारों में उसने तेज को देखा । सोने की चमक देखकर अथवा दूसरे किसी कारण, उसको उसने पृथ्वी में से उठाकर तेज तत्त्व में डाल दिया । तेज की उपासना मनुष्य को बहुत ही आकर्षक लगी। लकड़ी के दो टुकड़े एक-दूसरे के साथ घिसने से धुआं निकलता है, बाद में चिनगारियां निकलती है और अग्नि प्रकट होती है। यह देखकर उसने अरणि का मंथन चलाया और उससे पैदा हुई अग्नि को वह आहुति देने लगा। यह था सबसे पहले का धर्म । वैदिक धर्म की बुनियाद ही यश पर है। इसी यज्ञ द्वारा तप, त्याग, बलिदान और सेवा के सामाजिक सद्गुणों को उसने विचार चुनी हुई रचनाएं / २४७
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy