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________________ ईसाई लोगों के ग्रंथों में एक वचन हम पाते हैं-'पाप के फलस्वरूप मृत्यु नाम की रोजी मिलती है।' (दी वेजिज ऑव सिन इज डैथ) सामान्य अर्थ में यह वचन गलत है। मरण तो सबके लिए अवश्यंभावी है। ईश्वर का वह प्रसाद है। जो पाप करते हैं वे ईश्वर के इस प्रसाद का सदुपयोग नहीं कर सकते। अध्यात्मजागृति नष्ट होना ही मरण है, जिनका उक्त वाक्य में जिक्र है। पाप बढ़ने से मनुष्य की आत्म-जागृति क्षीण होती है। उसका जीवन आत्मविमुख और देहात्मवादी होता है। संतों और अवतारी पुरुषों ने मृत्यु पर विजय पाने की जो बात की है, वह यही है । मामूली मौत से न बुद्ध भगवान बच सके, न महावीर । सबको शरीर छोड़ना ही पड़ा; लेकिन उन्होंने आत्मनाशरूपी मृत्यु पर विजय पाई। इसीको वे ढूंढ़ते थे। सामान्य जनता मृत्यु से इतनी घबराई हुई, डरी हुई रहती है कि मृत्यु को पहचानना, उसका यथार्थ स्वरूप समझना उसके लिए कठिन होता है। समझाने का कोई प्रयत्न ही नहीं करते, नहीं तो मृत्यु हमारा सबसे श्रेष्ठ मित्र है। उसके घर आये हए किसीको निराशा नहीं हई। येथे नाही झाली कुणाची निराश आल्या याचकास कृपेविशीं ॥ न यहां इनके पास आये हुए किसी भी याचक की कृपा के बारे में निराशा ही हई है। मरणोत्तर जीवन और पुनर्जन्म एक चीज नहीं है। दोनों का भेद समझना चाहिए। हम मानते हैं कि मनुष्य मृत्यु के बाद अपने कर्मों के अनुसार नया जन्म लेता है। अगर किसी क्रूर आदमी का देहान्त हुआ तो शायद उसे शेर या भेड़िये का जन्म मिलेगा। वहां वह अपनी क्रूरता पूरी तरह से आजमायेगा। अब अगर उस असली क्रूर मनुष्य का लड़का पिता का श्राद्ध करता है और उसे पिण्ड देता है तो वह किसको खिलाता है ? उस शेर को, जो क्रूर आदमी का नया जीवन है ? उस शेर की तृप्ति तो मांस से ही हो सकेगी। उस शेर को खिलाना, उसके पांव संवहन करना (पगचंपी करना) पुत्र का धर्म नहीं है । उस क्रूर आदमी का पुत्र जब पिता का श्राद्ध करता है तब वह उसके मनुष्य जीवन के मरणोत्तर विभाग को, उसके समाजगत जीवन को पुष्ट करने की कोशिश करता है। पिता के व्याघ्र जीवन से उसे मतलब नहीं है। जब किसी सज्जन के जीवन की प्रेरणा समाज हजम कर लेता है, पूरी-पूरी हजम करके समाज ऊंचा चढ़ता है, तब उस सज्जन का मरणोत्तर जीवन सम्पूर्ण हुआ, कृतार्थ हुआ, अनन्त में विलीन हुआ । यही है सच्चा मोक्षानन्द या ब्रह्मानन्द ! एक जीवन की साधना पूरी होने पर जो कुछ भी अनुभव—कीमती अनुभव-उसे लेकर हम नये-ताजे जीवन में प्रवेश करते हैं। एक पुरुषार्थी भारतीय परदेश गया। वहां उसने तिजारत करके अपने व्यापार का बड़ा विस्तार किया; लेकिन बूढ़ा होने पर जब उसका वहां का आकर्षण कम हो गया और स्वदेश आने की इच्छा हुई, तब उसने वहां की सारी प्रवृत्ति समेट ली। देना-पावना चुका दिया और अपनी सारी कमाई इकट्ठी करके वह भारत लौटा। मृत्यु का भी वैसा ही है। जब प्रवृत्ति अनहद बढ़ती है और साधना के तौर पर काम नहीं आती, तब उसका सारा फल इकट्ठा करके नये जन्म की नई प्रवृत्ति, नयी साधना मनुष्य शुरू करता है। इसे एक तरह से मृत्यु कह सकते हैं। लेकिन इसके लिए दुःख नहीं करते। एक स्थान छोड़ने का मामूली अल्पकालिक दुःख जरूर रहता है, लेकिन वह किसीको रोकता नहीं। जेल में रहते वहां के कई लोगों से परिचय होता है। कुछ स्नेह-संबंध भी बन जाता है। जेल से २४६ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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