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ज वन होगा।
जिसे हम समाजवादी ढांचा कहते हैं, वह हमारे आध्यात्मिक, सामाजिक जीवन का बाह्य रूप है। जिसे हम सर्वोदयकारी पुण्य जीवन कहते हैं, वह उसका आन्तरिक स्वरूप होगा। वेदान्त ने उसे नाम दिया-- विश्वात्मैक्यभावना, भूमा-स्वरूप जीवन । आत्मौपम्य उसकी साधना है।
आत्मौपम्य की यह कल्पना कुछ स्पष्ट करनी चाहिए।
मनुष्य को जब भूख लगती है तो वह आहार ढंढ़ने लगता है। आहार को प्राप्त करके उसका उपभोग करता है। यह हआ प्राकृतिक जीवन । लोग इसे पशु-जीवन भी कहते हैं। लेकिन मेरे पेट में भूख की वेदना शुरू होते ही अगर मैं औरों की भूख का भी साक्षात्कार करूं और उनकी क्षुधा का निवारण करने का यत्न करूं तो वह धार्मिक जीवन हुआ। वह साम्पराय के लिए पोषक होगा। मैं जो कुछ भी पुरुषार्थ करूं, उसका लाभ सबको देने की अगर वृत्ति रही तो वह सर्वोदयकारी विश्वात्मैक्य-प्रेरित ब्राह्म जीवन होगा। जो कुछ भी ज्ञान मैंने प्राप्त किया, वह सबको दे दूं, उसका दुःख और संकट अपना ही मान लूं और सबके साथ जो मुझे मिले, उतना ही मेरा अधिकार है, ऐसा समझकर चलं, तो मृत्यु के इस पार का और उस पार का जीवन एकरूप होगा, और यही है मृत्यु पर विजय।
एक साधु छोटी-सी झोंपड़ी में रहता था। हाथ-पांव फैलाकर आराम से सोता था। इतने में जोरों से बारिश आयी। किसीने बाहर से आवाज देकर कहा, "मेरे लिए अन्दर जगह है ?" साधु ने कहा, "अवश्य ।" उसने अपने फैले हुए हाथ-पांव समेट लिये और पास-पास सो गये। बारिश बढ़ी और दूसरे दो यानी आये। उन्होंने पूछा, "जगह है ?" दोनों ने कहा, "अवश्य ! आप अन्दर आइये।" अब दो के चार हो गये । झोंपड़ी में सोना अशक्य था। चार आदमी बैठकर बातें करने लगे और ऐसे ही रात व्यतीत करने का उन्होंने निश्चय किया। इतने में चार और आये । उनका भी इन चारों ने स्वागत किया। अब बैठना नामुमकिन हो गया। आठ-के-आठ झोंपड़ी में खड़े होकर भगवान का भजन करने लगे और बारिश से भगवान ने बचाया, इसका आनन्द मनाने लगे। यही है आत्मौपम्य । जो कुछ भी पाया, सबका है, सबके साथ समविभाग करके पाना है, यही है आत्मौपम्य का तरीका-आत्म-ऐक्य की साधना ।
अब अगर ऐसी साधना हम करते रहे तो मृत्यु का डर नहीं रहेगा। मृत्यु भी जीवन-साधना का एक अंग ही है । सुख और दुःख, जीवन और मरण दोनों साधनारूप हैं। सुख और जीवन कुछ छिछले हैं। उनकी ज्ञानोपासना मन्द होती है । दुःख, संकट, निराशा और मरण इनकी साधना गहरी होती है। इनके द्वारा जीवन का साक्षात्कार सम्पूर्ण होता है । इनकी ज्ञानोपासना तेज होती है। इसीलिए साधना में इनका महत्त्व अधिक है।
___अगर जिन्दगी में किसीको केवल दुःख-ही-दुःख मिला तो उसकी साधना बधिर हो जाएगी, उसमें नास्तिकता आ जाएगी। इसके विपरीत किसीके जीवन में अगर सुख-ही-सुख रहा तो उसका जीवन उथला होगा। उसका आत्मौपम्प टूट जायगा और उसका सफल-जीवन भी साधना की दृष्टि से विफल होगा। इसलिए अगर भगवान की कृपा रही तो सुख और दुःख, सफलता और विफलता दोनों हमें प्रचुर मात्रा में मिलेंगे। मृत्यु के साक्षात्कार के द्वारा ही मनुष्य जीवन का सर्वांगीण गहरा अनुभव कर सकता है।
अगर किसी साथी को अपने काम की पूर्व तैयारी में हम शरीक होने को बुलावें और फलभोग के समय उसे दूर करें तो उसे शिकायत करने का अधिकार रहेगा। यही न्याय है जीवन के बाद मरण के अधिकार का। किसी अंग्रेज ने सुन्दर शब्दों में कहा है-'मरण हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।' (इट इज अवर प्रिविलिज टु डाई) अगर भगवान किसीको मौत से वंचित रहने की सजा देगा तो मनुष्य के लिए जीना दुश्वार होगा। उसकी कमाई का फल उसे न मिले तो वह अन्याय होगा।
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