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________________ कॉलेज के दिनों में तुम ही ने तो व्रत लिया था कि "एक जीवन प्रयोगों के पीछे बरबाद करना है। 'कैरियर' के लिए कोशिश नहीं करूंगा । और अगर किसी भी कारण 'कैरियर' बनने लगी तो उसे तोड़ना यही होगा मेरा जीवन-कार्यं । " "तुम्हारे इस व्रत को मेरा आशीर्वाद है। इसके पालन में मैंने तुम्हारी मदद की है, और करता रहूंगा। सर्व धर्म ही तुम्हारा धर्म है सर्व-मुक्ति में ही तुम्हारी मुक्ति है। सर्व साधनाओं का जब समन्वय होगा तब तुम्हारी साधना होगी। उसके बाद तुम्हें कुछ करना नहीं होगा और इस शरीर द्वारा जीने का प्रयोजन भी नहीं रहेगा ।" यह सारा मेरे ध्यान में आता है, लेकिन पूरा-पूरा आत्मसात् नहीं हुआ है। जब आत्मसात् होगा तभी मैं कह सकूंगा कि मेरा निजी मेरा धर्म क्या है ? परमस्नेही अंधकार गोवा की राजधानी पणजी में एक बार मेरा व्याख्यान था । जगह छोटी और श्रोता अधिक होने पर भी सभा में गड़बड़ नहीं थी। मेरा भाषण साहित्य विषय पर था । लोग एकाग्रता से सुन रहे थे। इतने में बिजली बन्द हो गई और दीवानखाने में अमावस सरीया चुप्प अन्धेरा हो गया। पेट्रोमेक्स लाने के लिए कोई भागे, किसी ने कुछ और सूचना दी। थोड़ी देर ठहरकर मैंने सुझाया, “मित्रो, दीये की क्या दरकार है ? आप लोगों ने मुझे देखा है, मैंने आपको देखा है । अपने विषय में हम रंग चुके हैं। प्रत्येक अपनी-अपनी जगह पर आराम से बैठा है। कुछ लोग खड़े हैं। हम अंधेरे में ही व्याख्यान आगे क्यों न चलावें ? व्याख्यान के बाद प्रश्नोत्तरी चलाने की मेरी आदत है। यह प्रश्नोत्तरी भी एक-दूसरे का चेहरा देखे बिना चलाई जा सकेगी। चेहरे पर का भाव यदि न भी दिखाई दिया तो आवाज से एक-दूसरे की वृत्ति और कहने की खूबी तो ध्यान में आ ही सकेगी।" मेरी यह खुशमिजाजी श्रोताओं को पसंद आई और सब शान्त होकर एकाग्रता से सुनने लगे । सचमुच ही उस दिन का व्याख्यान और उसके बाद की प्रश्नोत्तरी आकर्षक और सजीव हो सकी। सभा का काम समाप्त हुआ और ऐन आभार प्रदर्शन के वक्त कोई व्यक्ति एक मोमबत्ती ले आया । अपनी मौजूदगी प्रकट करने के लिए पेट्रोमेक्स भी मोमबत्ती के पीछे-पीछे आ गया। उसने लोगों की आंखें चौंधिया दी । इससे हमें इतनी बात तो कबूल करनी चाहिए कि उसके प्रकाश के कारण सभा से लौटनेवाले लोगों को अपने-अपने जूते खोजना सरल हो गया । एक इस छोटे से प्रसंग का इतने विस्तार के साथ वर्णन की जरूरत नहीं थी; लेकिन इस सभा में मुझे एक नया ही अनुभव हुआ। अंधकार में वक्ता और श्रोता के बीच निकटता अधिक अच्छी तरह स्थापित हो सकी थी। इतने उत्सुक लोग एकाग्रता से सुन रहे हैं, बड़े मार्मिक प्रश्न पूछ रहे हैं, उत्तर ठीक जंचने पर उसकी कदर भी करते हैं, और इतना होने पर भी किसी को किसी का चेहरा दिखाई नहीं देता और मानो इसी के कारण हम सब लोग अभिन्न मित्र हो गए हैं। एक-दूसरे को देख नहीं सकते, इस अड़चन के कारण सबको एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति हो गई थी और अंधेरे की अड़चन की भरपाई करने के लिए सभी लोग अपनी भलमंसी, सज्जनता और आत्मीयता की पूंजी का खुले दिल से व्यवहार करने लगे थे। मुझे लगा कि अन्धकार विचार चुनी हुई रचनाएं / २३९
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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