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________________ मेरा धर्म किसी ने पूछा 'आपका धर्म क्या है ?' मैंने कहा, 'उसीकी तो खोज में हूं।' जन्म से मैं हिन्दू हैं। लेकिन हिन्दू कोई एक धर्म नहीं है। अनेक धर्मों का या सम्प्रदायों का वह एक परिवार है। कभी-कभी उन धर्मों की अंदर-अंदर नहीं बनती है, जैसे कि अविभक्त कुटुम्ब में कभी-कभी होता है। लेकिन इन दिनों इस परिवार के सब धर्मों की आपस में अच्छी बनती है। मैंने बचपन से इन सब धर्मों का वायुमंडल प्यार के साथ और उत्साह के साथ आजमाया है। सब मुझे अच्छे लगे हैं। . बाद में परिवार के बाहर के पड़ोसी धर्मों के यहां भी जरा-जरा हो आया। बचपन से जो आदत है उसी के अनुसार उनके घर पर भी आत्मीयता बरतने लगा। मुझे तो उसमें कठिनाई महसूस नहीं हुई लेकिन मैं देख सका कि उनमें पारिवारिक उदारता कुछ कम है। मेरी आत्मीयता उन्हें अखरने लगी। लेकिन बेचारे करते क्या ? मैंने जोरों से अपनी आत्मीयता चलाई। मुझे उनका घर पराया जैसा लगा ही नहीं। हां मैंने अपने लिये एक नियम रखा था-सेवा लेनी कम, सेवा मांगनी कम, सेवा देनी बहुत कुछ। मैं कहता था, "अजी, मुझे पराया क्यों मानते हैं ? मुझे अपने घर का ही मान लीजिये। घर के बुजुर्गों के प्रति आदर दिखाना मुझे अच्छा लगता है। सेवा करते आनन्द आता है। मुझे चाहिये सो इस घर के वायुमंडल में मुझे मिलता है। अगर मेरी कोई बात आपको अखरती हो तो कहिये, मैं सुधार लूंगा, संभाल लूंगा।" वे कहने लगे, “ऐसा तो है नहीं, आप हमारे प्यारे मेहमान हैं।" मैंने कहा, "वही तो मुझे अखरता है। मुझे मेहमान क्यों कहते हैं ? घर का कहिये। और कहीं भी रहने दीजिये। मैं आपका आतिथ्य लेने नहीं आया हूं। अपना प्रेम महसूस करने आया हूं।" खैर, यह तो ऐसा ही चलेगा। मुझे तो सब धर्म अपने-से लगते हैं, लेकिन ज्यादा प्यारी है भक्ति। उसमें भी अभेद भक्ति में जो आनन्द आता है वह तो और ही है। उस आनन्द को धन्यता ही कहना चाहिये। लेकिन आपने पूछा, "तुम्हारा यानी मेरा धर्म कौन-सा है ?" एक तरह से सब धर्म मेरे हैं, लेकिन इस जवाब से मुझे जितना सन्तोष होता है उतना आपको नहीं होगा। मेरी कठिनाई धर्म पसन्द करने की नहीं है । मैं तो अपने को पूरा-पूरा नहीं पहचान सका हूं। असली बात यह है कि मैं एक होते हुए भी एक नहीं हूं। मुझमें 'मैं' 'मैं' कहनेवाले अनेक बसे हुए हैं। 'आई कांटेन मल्टीट्यूड्स'। सबके प्रति मेरी आत्मीयता है। हम लोगों में समन्वय है, किन्तु एक-वाक्यता नहीं है। अगर इनमें किसी एक 'मैं' की प्रधानता होती तो भी मैं अपना धर्म कौन-सा है, कह सकता । मैं भगवान से प्रार्थना करता है कि 'भगवान, मुझमें जो अनेक 'मैं' हैं उनमें से किसी एक को प्रधान बनाने की मुझे शक्ति दीजिये, तो मेरा बेड़ा पार होगा।' भगवान कहते हैं--बेशक वैसा करने से तुम्हारा बेड़ा पार होगा। तुम्हारे द्वारा बहुत बड़े काम होंगे। तुम्हारी प्रतिष्ठा बढ़ेगी, तुम युगपुरुष बनोगे । इतनी शक्ति तुममें है। लेकिन मैं तुम्हारे द्वारा अपना एक प्रयोग चला रहा हूं। तुम्हारे अन्दर एक 'मैं' की प्रधानता हुई तो तुम्हारा बेड़ा पार होगा, लेकिन मुझे अपना बेड़ा पार कराना है। इस दुनिया में किसी भी काल में सफलता के लिये एकागिता की आवश्यकता होती है । एकागिता के बिना एकाग्रता नहीं आती और एकाग्रता के बिना सफलता कहां से? . और अगर उत्कटता बढ़ी तो समन्वय में कुछ कमी होगी, इसलिये तुम्हें मैं एकांगी नहीं बनाऊंगा। २३८ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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