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________________ ने एक तरह से उपकार ही किया है। अन्धकार की इस शक्ति की तरफ मेरा ध्यान पहली ही बार गया। एक बार फिर बिहार में संथाल लोगों की परिस्थिति देखने के लिए हम मोटर से घूम रहे थे। शाम के समय एक गांव में जा पहुंचे एक पाठशाला की खाली इमारत में बैठकर हम लोगों ने गांव के लोगों के साथ वार्तालाप शुरू किया। धीरे-धीरे प्रकाश कम होकर कुछ धुंधला हो गया। वहां के एक गृहस्थ से मैंने कहा, "अन्धकार हो चला है, दीया ले आयेंगे तो अच्छा होगा ।" आश्चर्य से मेरी तरफ देखते हुए वे बोले, "दीया! इस गांव में दीया कहां से मिलेगा ? सारे गांव में एक ही दीया है और वह दिक्कु के दरवाजे के सामने है। यहां के हम लोग दीया कभी इस्तेमाल नहीं करते । सूर्य छिप गया कि हमारा करोबार समाप्त हो जाता है। सुबह पौ फटी कि हम लोग काम पर लग जाते हैं।" १९२३ में जब जेल में था, शाम को हमें कोठरी में बन्द कर देते थे और सुबह छः बजे के बाद बाहर निकालते थे । कोठरी में कभी दीया नहीं होता था । उन दिनों की मुझे याद आ गयी। लेकिन वहां कैदी भाग तो नहीं गया है, अपनी जगह पर ही है, इसकी तसल्ली करने के लिए पुलिस हाथ में लालटेन लिये दरवाजे के लोहे के सीखचों में से हमारी तरफ देखती थी । इस कारण क्षण-भर के लिए दीये के दर्शन होते थे। लेकिन यहां सारे गांव में एक ही दीया और बाकी सर्वत्र पशु-पक्षियों का साजीवन मैंने पूछा, "दिक्कु कौन है ?" जवाब मिला, "इस प्रदेश में हम सब संथाल लोग हैं । हम लोगों के बीच कोई मारवाड़ी या कोई भी गैरसंथाली आकर रहता है तो उसे हमारी भाषा में 'दिक्कु' कहते हैं। 'दिक्कु' याने 'पराया' ।" इस गांव में जिस प्रकार एक ही दीया था, उसी तरह दिवक भी एक ही था। उसके भी घर में दीया नहीं था। सिर्फ घर के बाहर दरवाजे के पास एक घासलेट की ढिबरी जल रही थी । मनुष्यों की बस्ती में अन्धेरे का साम्राज्य ! मैं बड़ी चिन्ता में पड़ गया। इन लोगों को इसका कुछ बुरा नहीं लगता। अन्धेरा तो रात को आयेगा ही उसका दुःख मानना चाहिए, यह बात भी इन लोगों के दिमाग में नहीं आती । भारतभूमि, भारतीय जीवन, भारतीय संस्कृति के बारे में बराबर बोलते रहनेवाला मैं, मुझे इस दीप-विहीन जीवन की आजतक कल्पना ही नहीं थी । हिन्दुस्तान में ऐसा भी भू-भाग है, यह बात मुझे पहली ही बार मालूम पड़ी। थोड़ी देर सोचने पर मुझे लगा कि इन लोगों पर तरस खाने से पहले मुझे अपने आप पर ही तरस आना चाहिए। एक सुनी हुई बात है । किसी श्रीमन्त के घर में एक लड़का बहुत ही नाजुक दिल का था। घर में रात होने से पहले ही दीये जलाये जाते थे; लेकिन दीवार पर अपनी और अपने भाइयों की छाया का स्वरूप समझाकर बताने के बजाय अमीर बाप ने प्रत्येक कमरे में दो-दो तीन-तीन दीये रखने की व्यवस्था की 1 उद्देश्य यह था कि उठावदार छाया कहीं भी न पड़े। बच्चा जबतक सो नहीं जाता था तबतक दीये बुझाये नहीं जाते थे। बच्चे को पौ फटने पहले नींद से उठने की आदत नहीं थी । एक रात को लड़का आधी रात को ही जाग उठा चारों तरफ अन्धेरा ही अन्धेरा है और बिछौने पर पास में मां बगैरह कोई भी नहीं; यह देखकर वह चीख उठा और कमरे में कोई दीया लाये, उससे पहले र के मारे लड़के के प्राण पखेरू उड़ गये । प्रत्यक्ष घटित घटना के रूप में यह कहानी मैंने उस समय सुनी थी। अन्धेरे का डर भूत के डर जितना ही भयानक हो सकता है, इसकी कल्पना करके मैं अस्वस्थ हो गया था। उस समय मेरी उम्र भी ज्यादा बड़ी नहीं थी लेकिन हमें अन्धेरे की आदत थी। अपरिचित जगह अन्धेरे में जाने का डर जरूर लगता था, लेकिन अपनी छाया देखकर डर लगे इतने अनजान हम कभी भी नहीं थे, बल्कि दीये के सामने उंगलियां धर के दीवार पर छाया के हिरण बनाने और हिरणों के सींग लड़ाने 1 २४० | समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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