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धर्म कह सकते हैं। आहार मांस का हो, दूध, अंडे आदि का हो, धान्य का हो, या कंदमूलफल और फूलपत्ते का हो, उसमें हिंसा तो आती ही है। फिर वह हिंसा स्थूल हो या सूक्ष्म हो । ऐसी आहार-प्रेरित हिंसा को कम करते जाना, यही है अहिंसा धर्म का प्रस्थान । इसलिए मनुष्य कहता है, कि आहार के लिए होनेवाली सूक्ष्म हिंसा को क्षम्य मानना ही चाहिए।
आत्मरक्षा के लिए हिंस्र प्राणी को अथवा हिंस्र मनुष्य को मारना हिंसा तो है ही, लेकिन उसे भी क्षम्य मानना चाहिए। (क्षम्य ही नहीं, विहित मानना चाहिए ऐसा भी कहनेवाला पक्ष है।) जबतक गांधीजी के सत्याग्रहरूपी अहिंसक प्रतिकार का आविष्कार नहीं हुआ था, तबतक सारी दुनिया मानती थी कि आत्मरक्षा के लिए आक्रमणकारी की हत्या करनी पड़े तो ऐसी हत्या और ऐसा युद्ध धर्म्य है, स्वर्ग को पहुंचानेवाला है।
धर्मकार कहते हैं कि इस संसाररूपी नदी या समुद्र को लांघकर मनुष्य को उस पार ले जानेवाला साधन यह शरीर ही है। (तैरकर उस पार ले जाने के साधन को तीर्थ कहते हैं।) इस तीर्थ को निभाने के लिए और बचाने के लिए जो हिंसा होती हैं, वह क्षम्य है। मोक्ष पाने में ऐसी हिंसा बाधक नहीं है, ऐसा निर्णय कई पंडितों ने दिया है । यज्ञ में पशुओं को मारनेवाले ब्राह्मणों ने यहां तक कहा कि यज्ञ के लिए होनेवाली पशुहिंसा हिंसा है नहीं। ऐसे वचन को आज कौन मानेगा ? लेकिन यज्ञ का व्यापक अर्थ करके कोई कह सकता है कि समाज-कल्याण के लिए जो बलिदान दिया जाता है, हिंसा की जाती है, वह धर्म्य है। इसलिए उसका विरोध तो नहीं होना चाहिए।
गांधीजी कहेंगे, यज्ञ में अपना ही परिश्रम अर्पण करने की बात होती है। अपने ही प्राण अर्पण करने तक मनुष्य जा सकता है। यज्ञमात्र आत्मयज्ञ ही हो सकता है।
यह सारी चर्चा अनेक दफे हो चुकी है। यहां इसका स्मरण किया केवल प्रस्तावना के रूप में। जो हिंसा पूरी तरह से त्याज्य है, जिसे हम धर्म्य नहीं कह सकते, जिसका बचाव हो नहीं सकता और जो हिंसा हमारा पतन करती है, पात करती है, (पातक = अध:पात करनेवाला तत्त्व) वह होती है द्वेषमूलक । इसलिए अगर हम अद्वेष को अपना व्रत बना लेवें तो सबसे बड़ी और सब तरह से त्याज्य ऐसी हिंसा से हम बच ही जायेंगे।
गीता ने आदर्श भक्तों का वर्णन करते एक मारके का श्लोक दिया है। उसमें अहिंसा-दर्शन की सारी पूरी साधना क्रमशः आती है।
अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् ; मैत्रः; करुण एव च ।
निर्ममो निरहंकारः सम-दुःख-सुख: क्षमी ।। परम धर्म समझकर अहिंसा की साधना करनेवाला आदमी सबसे प्रथम अपने हृदय से द्वेष को निकाल
देवे।
जब हम चाहते हैं कि किसी का नुकसान हो, किसी की प्रतिष्ठा टूट जाय, किसी का नाश हो जाय तब कहना चाहिए कि हम उसका द्वेष करते हैं। जो लोग हमारा नुकसान करते हैं, हमको दबाते हैं, हमारे विकास में विघ्न डालते हैं, उनका द्वेष करना स्वाभाविक है । लेकिन उसी चीज को टालना, द्वेष से ऊंचे उठना हमारे लिए उन्नतिकर है। जो लोग हमारी इच्छा के अनुसार नहीं चलते अथवा जिन्हें हम पराया अथवा प्रतिकूल समझते हैं, उनका भी हम द्वेष करते हैं हालांकि ऐसा करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। हमारी इच्छा के अनुसार चलने के लिए दुनिया थोड़ी ही बंधी हुई है ! हमने किसी को पराया माना उसमें उस बेचारे का क्या दोष? उसका द्वेष करना हमारा ही दोष है। अथवा कहिये कि हमारा ओछापन है।
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