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________________ ऐसी वृत्ति के लोगों को विश्वास दिलाना कि अन्त में सत्य की ही विजय है, उनकी चिढ़ बढ़ाने जैसा है। इससे अधिक अच्छा तो सत्य की फलश्रति ही बदल डालनेवाला जैन-वचन है-'सच्चं लोगम्मि सारभूयं' -इस दुनिया में साररूप तो सत्य है, बाकी सब नि:सार है। प्रेम सत्य का होना चाहिए, विजय का नहीं दुनियावी लाभ का नहीं। सत्य के पालन से हमारा तेज बढ़ता है, चारित्र्य उन्नत होता है; सत्य से धैर्य की सिद्धि होती है। जिसके पास सत्य है, उसका धीरज कभी खत्म नहीं होता और सत्य से जो आन्तरिक सन्तोष मिलता है, उसकी बराबरी कर सकनेवाली कोई दूसरी चीज दुनिया में है ही नहीं। इस दृष्टि से विचार करने पर 'सत्यमेव जयते' का हमें नया ही अर्थ मिलता है । हृदय-शक्ति का बाह्य सृष्टि के साथ जितना सम्बन्ध है, सत्य की उतनी विजय बाह्य सृष्टि में भी है। परन्तु सच्चा लाभ आन्तरिक सन्तोष का है। सत्य की विजय आन्तरिक होती है और वह अन्त में नहीं, बल्कि सदा, अखंड होती रहती है। जो व्यक्ति अथवा राष्ट्र सत्य का पालन करता है उसे आत्म-सन्तोष, आत्म-प्रतिष्ठा और आत्मतेज प्राप्त होता है । यही परम लाभ है। सत्य की विजय आन्तरिक होती है, यह भाव बताने के लिए ही मालूम होता है, उपनिषद् के ऋषियों ने यहां पर 'जि' जैसी परस्मैपदी धातु को आत्मनेपदी बनाया है। संस्कृत व्याकरण में परस्मैपदी और आत्मनेपदी प्रयोग होते हैं। इनमें आत्मनेपदी अपने लिए और परस्मैपदी दूसरे के लिए होता है । वह भेद अब बहुत नहीं पाया जाता; परन्तु मूलतः आत्मनेपदी प्रयोग वही है, जिसका फल अपने ही लिए होता है। अंग्रेजी में जहां सब्जेक्टिव शब्द आता है वहां हम 'आत्मनेपदी' रख सकते हैं। जहां ऑब्जेक्टिव शब्द हो, वहां शायद 'परस्मैपदी' चलेगा। 'आत्मने' का अर्थ बताया है-'आत्मार्थफल बोधनाय।" १. 'धर्मोदय' पुस्तक से अद्वेष-दर्शन महावीर आदि जैन तीर्थंकरों ने और आज के युग में महात्मा गांधी ने अहिंसा-दर्शन को प्राधान्य दिया। जैन दर्शन में मांसाहार निषेध और जीवदया को प्रधानता मिली। महात्माजी ने वैष्णवोचित जीवहत्यानिषेध को मान्यता देते हुए देश के सामने और दुनिया के सामने अहिंसक ढंग से याने सत्याग्रह के द्वारा अन्याय का प्रतिकार करने का उपाय रखा। हम युद्ध न करें, कानून के नाम से भी मनुष्य-वध न करें, इस स्थूल अहिंसा से लेकर मनुष्य मनुष्य का शोषण न करे ऐसी सक्षम अहिंसा तक गांधीजी अहिंसा दर्शन को ले गये हैं। अहिंसा ही सब धर्मों की और सामाजिकता की बुनियाद होने के कारण इस दर्शन का जोरों से विकास होने के दिन अब आये हैं। इसी अहिंसा-दर्शन का एक पहलू अत्यन्त महत्त्व का होने से उसका कुछ चिन्तन-मनन करने का यहां सोचा है। मनुष्य जाति को हिंसा से उठाकर अहिंसा की ओर ले जाना यही अहिंसा-दर्शन की साध है। मनुष्यजीवन हिंसा से भरा हुआ है। जीव जीव को खाकर ही जीता है। यह है वस्तुस्थिति । इसे शायद हम स्वभाव २३२ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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