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________________ ही है, 'महती विनष्टि' ही है। लेकिन केवल आत्मा में जीवन का सम्पूर्ण रस नहीं आ सकता। जीवन के बिना आत्मा को स्वानुभव का आनन्द भी नहीं मिलता। आज अगर कोई मुझसे पूछे कि आत्म-दर्शन श्रेष्ठ है या जीवन-दर्शन तो मैं कहंगा कि आत्म-दर्शन के बिना जीवन-दर्शन अपूर्ण है, निःसत्व है, निस्सार है। लेकिन केवल आत्म-दर्शन' की अपेक्षा 'आत्म-दर्शन-युक्त जीवन-दर्शन' ही सर्वश्रेष्ठ है, इसमें तनिक भी शंका के लिए अवकाश नहीं है। ब्रह्मविद्या अथवा आत्म-दर्शन भले ही सर्वश्रेष्ठ विद्या हो, अध्यात्म-विद्या तमाम विद्याओं की शिरोमणि क्यों न हो, मनुष्य को सम्पूर्ण विकास की दीक्षा देने की सामर्थ्य उसीमें क्यों न हो, ब्रह्मविद्या को आखिरकार जीवन की और जीवन-दर्शन की ही सेवा करनी है। हमारा मतलब किसी श्रेष्ठ मानव-नेता का आतिथ्य करने का क्यों न हो, उसके परिचय का पूर्ण लाभ हम तभी उठा सकते हैं जब हम उस नेता के साथ उसकी जीवन-संगिनी पत्नी, उसके बाल-बच्चे, उसके रहस्य-मन्त्री और उसके अन्तेवासी सेवकों को भी आमन्त्रण दें; क्योंकि उस नेता का व्यक्तित्व और उसका अध्यात्म उन सबको साथ लेकर ही प्रकट होता है। अध्यात्म-विद्या, आत्मविद्या, वैराग्य-विद्या, वैराग्य-साधना, धारणा-ध्यान-समाधि आदि आत्मयोग के पीछे हजारों बरस व्यतीत करने के बाद उसी सिद्धि के बल पर अब हमें जीवन-साधना करनी है, जीवन-योग को पाना है। और वह भी केवल व्यक्तिगत जीवन का नहीं, केवल पारिवारिक और राष्ट्रीय जीवन का भी नहीं, समस्त मानव-जीवन का, विश्वव्यापी, इतिहासव्यापी मानव-जीवन का दर्शन और योग हमें प्राप्त करना है। इसके लिए हमें विश्वात्मा, विश्व-जीवन, विश्वमोक्ष और विश्व-साधना की चर्चा करनी है। यही है हमारा यूगकार्य । इसलिए अब हमें इसी के ब्योरे में उतरना है; घुसना है, फिर वह चाहे कितना जटिल क्यों न हों ब्रह्मविद्या के सहारे हम विराट जीवन-विद्या के माहिर बनेंगे; इससे कम ध्येय से, कम महात्वाकांक्षा से, हमें सन्तोष नहीं होगा, युगसेवा हमसे सम्पन्न नहीं होगी। इस एक जीवन-साधना से ही हमारा जीवन सफल होगा और जीवन-स्वामी के आशीर्वाद हमें मिलेंगे। १. 'जीवनयोग की साधना' पुस्तक से 'सत्यमेव जयते' अनुभव ऐसा नहीं है कि सत्य की ही सदा विजय होती है। यदि होती तो सत्य को कोई छोड़ता क्यों ? इससे 'सत्यमेव जयते' का लोग यह अर्थ करते हैं कि "अन्त में सत्य की विजय होती है। परन्तु किसके अन्त में ? सृष्टि का तो अन्त है नहीं। मनुष्य का अन्त है। हर एक घटना का अन्त है। किसी मनुष्य को अपनी सत्यवादिता के कारण सारे जीवन दुःख, अन्याय और पराजय भोगनी पड़े और जीवन का अंत आने पर लोग उसकी कदर करें, तो उससे इस मनुष्य को क्या लाभ हुआ? सत्य की विजय समय पर हो तभी वह काम की विचार : चुनी हुई रचनाएं | २३१
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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