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________________ के भाले सूर्य-प्रकाश से उज्ज्वल बनकर कैसे चमक रहे हैं ! उज्ज्वल कहने के बजाय सजीव बने हुए कहना ही ठीक होगा। रत्न देखकर जैसा आनन्द होता है अथवा धातु के बरतन देखकर जैसा आह्लाद होता है उसी प्रकार इन हरे और लाल पत्तों की लाल लावण्य देखकर मेरे मन में प्रसन्नता उमड़ने लगी। ___ और कुछ दिन गुजरे। अब पत्तों के दोनों स्तरों ने नया ही खेल आरम्भ किया है। लाल पत्तों ने हरे रंग की छटा धारण करना प्रारम्भ किया है और नीचे के हरे पत्तों ने सुनहरा रंग हम गा सकते हैं या नहीं, यह आजमाने का प्रयोग शुरू किया है। ऊपर और नीचे दोनों तरफ हरा रंग समान है, इसलिए तांबे और सोने के बीच का उभयान्वयी रंग विशेष निखरने लगा है। लाल रंग की तुलना में हरे रंग में एक तरह की खुमारी आती तो पीले के पास उसी हरे रंग में प्रौढ़ मार्दव व्यक्त होता। और इन तीनों रंगों के सुन्दर संगम के कारण सारे वृक्ष पर खानदानी भरे वैभव की छटा फैली हुई देखकर आंखों को तथा मन को स्वस्थता और संतोष होने लगा। किसी प्राचीन कुटम्ब की पुरुषार्थी पीढ़ी का जीवनक्रम देखते समय और उसकी परम्परा ढुंढ़ते समय जिस प्रकार का अनुभवानन्द होता है उसी प्रकार का आनन्द इन ऋतुनिष्ठ पत्तों ने दिया है। १२-१-४३ हरे रंग में लाल रंग मिलाया जाय-मिलाया नहीं, किन्तु बुना जाय तो अंजीरी रंग बनता है, यह बात सही है, लेकिन लाल में थोड़ी-सी हरे रंग की छटा आने से वह रंग उतना नहीं खिलता। हरे रंग में जान आई, वह मगरूरी से आगे बढ़ा तो लाल रंग भी अमर्ष से अधिक लाल होता है और तभी इन दोनों की स्पर्धा में अंजीरी रंग अपनी सोलह कलाओं का प्रदर्शन करता है। और इस स्पर्धा को अगर ताजगी और चमक की मदद मिली तो फिर पूछना ही क्या ? ऐसा मजा आता है कि मारे खुशी के दिल दब जाता है। इस शोभा का अब क्या करूं, उसे कहां सुरक्षित रखें, ऐसा हो जाता है। दूसरा कुछ न सूझा तो भगवान ने वाणी बख्शी हुई है उसे याद करके हम उसका कीर्तन शुरू कर देते हैं। उसका याने किसका ? यह वाचाशक्ति देने वाले प्रभु का ? मैं कहना चाहता था-रंग का कीर्तन । लेकिन फिर ख्याल आया कि किसी भी सुंदर कृति के पीछे पागल होने के बाद हम जो कीर्तन करते हैं, उसमें भगवान का कीर्तन आ ही जाता है।' १. 'उड़ते फूल' से इण्टर लॉकन में आज मैं इण्टरलॉकन के बारे में लिखंगा। लेकिन उसके पहले एक बात लिखनी ही चाहिए। भूतकाल में जब किसी स्थान को देखने के लिए जाता था, तब उसका इतिहास, उसके सम्बन्धी पौराणिक कथाएं साहित्य में आया हुआ उस स्थान का उल्लेख वगैरा सब प्रयत्न-पूर्वक जान लेता था । और इस तरह उस स्थानसंबंधी अपने संस्कार समृद्ध कर लेता था। लोगों को भी इन सब चीजों से, अपनी दृष्टि द्वारा, थोड़े ही में परि २२४ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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