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ऐसी शोभा देखने के लिए सिर ऊंचा उठाकर पेड़ की ओर देखा तो वहां नग्न- अपक्षणक नजर आने के बदले अल्पमात्रा में किन्तु बिलकुल हरे पत्ते नजर आने से बहुत आश्चर्य हुआ । यकीन हुआ कि वसंत का अब प्रारम्भ हो गया है। पेड़ पर एक भी पीला था अधपीला पत्ता नहीं रहा । बूढ़े और नीरस बने हुए पत्ते भी नहीं रहे । पवन से डरने वाले पत्ते भी नही रहे । उनके स्थान पर 'हवा का कैसा भी झोंका आए तो हमें उसका डर नहीं है।' ऐसा आत्मविश्वास रखने वाले रुआबदार जवान पत्ते काफी संख्या में नाचते दिखाई देते हैं। उन्हें देखकर उनका अभिनन्दन करने का दिल होता है। हवा में नमी होने के कारण ये पत्ते दो-चार दिन तो निश्चित टिके रहेंगे। लेकिन उसके बाद ? उसके बाद तो सख्त गर्मी पड़ेगी और फिर जोर की हवा चलने लगेगी। उसकी आर्द्रता टहनियों द्वारा पत्तों तक नहीं पहुंच सकेगी और फिर ये सब पत्ते जौहर की तैयारी करके एक ही समय नीचे गिरेंगे। इन सब पत्तों को विदा करने के बाद ही वृक्ष की शाखाओं को नवसृजन की प्रेरणा होगी। हरएक शाखा को एक तरह की गुदगुदी होने लगी। 'कहां फूटू ? कहां फटू ?' कहकर अंकुर सर्वत्र बंधमुक्त होने के लिए चकमा देने की चाल चलने लगेंगे ।
उसके बाद ही धूप, पवन, वारिश, सरदी, किसी से भी न दवनेवाली सच्ची यौवन-दृष्टि प्रकट
होगी ।
मेरी इच्छा और अपेक्षा थी कि पुराने पत्ते सब झड़ जाने के बाद पेड़ कुछ दिन के लिए पर्णविहीन नग्नावस्था धारण करे और थोड़ी बहुत तपस्या के बाद ही उसे नई कुंपलें फूटें । लेकिन सर्दी की एकांगी धूप और एकलहरी हवा दोनों ने मिलकर पेड़ के दक्षिण तरफ के पत्ते बहुत जल्दी गिरा दिए। चुनांचे उत्तर तरफ का और निचला भाग खुला होने से पहले ही दक्षिणी शाखाओं की तपस्या पूरी हुई और हरे रंग की पतली फुनगियों में कंबली कंबली लाल पत्तियां बड़े जोश से फूटते लगी हैं। एक अंग्रेज कवि ने 'न्यू मून इन दी आर्म्स आफ दी ओल्ड मून' (पुराने चन्द्र की भुजाओं में नया चन्द्र) का वर्णन किया है। उसी प्रकार नीम आज शोभा दे रहा है । हरी फुनगियों के वृद्ध बाहु फैले हुए हैं और उनके साथ में नूतन लाल-लाल रंग निरोगी और हृष्टपुष्ट बालक खेल रहा हैं । पत्तों का यह कोमल ताम्र-वर्ण मुझे ठेठ बचपन से भाता है। आम को कंवले-कंवले पत्ते फूटने लगते तब उन्हें मुंह में पकड़कर हम उसमें से पी-पी आवाज निकालते उन पत्तों को कषाय मधुर गंध, मुलायम कोमल स्पर्श और उनमें से निकलती बकरी के बच्चों की सी आवाज - यह सारा अचानक याद आया और छुटपन के दोपहर के सैर-सपाटे फिर से ताजा हो गये। लेकिन लाखी रंग के ये कोमल पत्ते देखकर मुझे दो समर्थ भारतीय कवियों का स्मरण होता है और यह जानकर कि उन्हें भी ये ताम्र-पर्ण आकर्षक मालूम होते थे, मैं बिलकुल पोला ही सही, लेकिन सचमुच अभिमान अनुभव करता हूं। महाकवि बाणभट्ट ने इन पत्तों का वर्णन बहुत ही तन्मयता से किया हुआ है और बाण के उस वर्णन की तरफ ध्यान देने की आवश्यकता रवि बाबू ने अपने 'प्राचीन साहित्य' में ग्रंथित की है। इतने द्विविध स्मरण के कारण भी इन कोमल पत्तों के प्रति मेरे मन में कृतज्ञता की भावना पैदा होना सम्भव था। लेकिन उन्होंने देखते-देखते मुझे अपने बचपन के पी-पी युग में पहुंचा दिया। चुनांचे ये पत्ते तो मेरे अब दोस्त ही बन गये हैं। नया साल उन्हे मुबारक हो ।
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आठ दिन हो गये हैं । अब पेड़ के ऊपरी हिस्से पर गहरा लाल रंग और निचली बाजू पर सेवाल का साहरा रंग, ऐसी शोभा उस पर पड़ती धूप के कारण चमकने लगी है। दक्षिण तरफ की दीवाल की छाया में बैठकर कई एक मिनट मैं यह शोभा निहार रहा हूं। आगरे में अकबर का रोजा देखा था उसका स्मरण होता है । नीचे की मंजिलें लाल पत्थर की और सबसे ऊपर पीले रंग के कलश, यह शोभा बहुत ही आकर्षक लगी थी। और यहां गलितपणं बुद्ध वृक्ष पर रहे सहे ताजे हरे पत्ते और उन पर नये फूटने वाले लाल नुकीले अंकुरों
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