SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान सूर्यनारायण माथे पर से हमें अपने आशीर्वाद देते थे। पसीने के रेले हमारे गालों पर से चाहे उतने उतरें, सामने के प्रपात के आगे वे किसी का ध्यान थोड़े ही खींच सकते थे। सूर्यनारायण के आशीर्वाद झेलने की जैसी शक्ति उंचळ्ळी के प्रपात में थी, वैसी मुझमें न थी। पानी चमककर सफेद रेशम या साटिन की शोभा दिखाने लगा-ए मूविंग टेपेस्ट्री ऑव ह्वाइट सैटिन एण्ड सिल्वर फिलिग्री। कटक में चांदी के बारीक तार खींचकर उसके अत्यंत नाजुक और अत्यन्त मोहक फूल, कमल, करंड आदि अनेक प्रकार की चीजें मैंने उड़ीसा में मन भरकर देखी हैं और कहा है, इन गहनों ने बेशक कटक का नाम सार्थक किया है। प्रकृति के हाथों से बननेवाले और क्षण-क्षण में बदलनेवाले चांदी के सुन्दर और सजीव गहने यहां फिर से देखकर कटक का स्मरण हो आया। सोने के ढक्कन से सत्य का रूप शायद ढक जाता होगा, किन्तु चांदी के सजीव तार-काम से प्रकृति का सत्य अद्भुत ढंग से प्रकट होता था। "अब इस सत्य का क्या करूं? किस तरह उसे पी लूं ? उसे कहां रखू ? किस तरह उठाकर ले चलूं?" ऐसी मधुर परेशानी मैं महसूस कर रहा था, इतने में पुरानी आदत के कारण, अनायास, कंठ से ईशावास्य का मंत्र जोरों से गूंजने लगा। हां, सचमच इस जगत को उसके ईश से ढंकना ही चाहिए-जिस तरह सामने का तिरछा पत्थर पानी के परदे से ढंक जाता है और वह परदा चैतन्य की चमक से छा जाता है। जो-जो दिखाई देता है-फिर वह चाहे चर्म चक्ष की दष्टि हो या कल्पना की दृष्टि हो-सबको आत्मत्व से ढंक देना चाहिए। तभी अलिप्त भाव से अखंड जीवन का आनन्द अन्त तक पाया जा सकता है। मनुष्य के लिए दूसरा कोई रास्ता नहीं है। दष्टि नीचे गई। वहां एक शीतल कुंड अपनी हरी नीलिमा में प्रपात का पानी झेलता था और यह जानने के कारण कि परिग्रह अच्छा नहीं है, थोड़ी ही देर में एक सुन्दर प्रवाह में उस सारी जलराशि को बहा देता था। अघनाशिनी अपने टेढ़े-मेढ़े प्रवाह के द्वारा आसपास की सारी भूमि को पावन करने का और मानवजाती के टेढ़े-मेढे (जहराण) पाप (एनस्) को धो डालने का अपना व्रत अविरत चलाती थी। मैंने अन्त में उसीसे प्रार्थना की: युयोधि अस्मत् जुहुराणम् एनः यूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम। हे अधनाशिनी ! हमारा टेढ़ा-मेढ़ा कुटिल पाप नष्ट कर दे। हम तेरे लिए अनेकों नमस्कार के वचन , रचेंगे। जून १९४७ १. 'जीवनलीला' से 'दिवसा आद्यन्त-रमणीया' ये गर्मी के दिन हैं। दिन-पर-दिन गर्मी जोरों से बढ़ रही है। लेकिन गर्म हवा की ल अभी तक शुरू नहीं हई है। महीन-रेती की आंधी भी नहीं है। इसलिए आजकल के दिन सुहावने मालूम होते हैं। हमारे प्राचीन कवियों ने ग्रीष्म का वर्णन उत्साह से किया है। सौंदर्य-रसिकों के सम्राट कालिदास ने अपने ऋतुसंहार में छः ऋतुओं का वर्णन करते हुए ग्रीष्म से ही प्रारम्भ किया है। मालूम होता है 'मधुरेणा समापयेत्' वाले विचार : चुनी हुई रचनाएं | २१६
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy