SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक ओर यदि जंगल की भीषण सुन्दरता का मैं रसास्वादन कर रहा था, तो दूसरी ओर चि० सरोज के कितने बेहाल हो रहे होंगे इस चिन्ता से उसकी ओर देखता था। जब सरोज ने कहा, "जंगल की ऐसी यात्रा के अंत में अगर कोई प्रपात देखने को न मिले तो भी कहना होगा कि यहां आना सार्थक ही हुआ है। कैसा मजे का जंगल है। ये बड़े-बड़े पेड़, उन्हें एक-दूसरे से बांधनेवाली ये लतायें सब सुन्दर है।" तब मुझे बहुत संतोष हुआ। आगे जब रास्ता लगभग असंभव सा मालूम हुआ, और एक हाथ में लकड़ी तथा दूसरे से किसी का कंधा पकड़कर उतरना भी सन्देहप्रद प्रतीत हुआ, तब भी सरोज कहने लगी, "मेरा उत्साह कम नहीं हुआ है। किन्तु दूसरों को अड़चन में डाल रही हूं, इस खयाल से ही हताश हो रही हूं। यह उतार लौटते समय चढ़ना होगा — इसका भी खयाल रखना है ।" मैंने कहा, "एक बार उंचल्ली के दर्शन करने के बाद किसी-न-किसी तरह वापस तो लौटना होगा ही। किन्तु हम पूरा आराम लेकर ही लौटेंगे। यहां तक तो आ ही गये हैं, और प्रपात की आवाज भी सुनाई दे रही है । इसलिए अब तो आगे बढ़ना ही चाहिए।" हमारे मार्ग-दर्शक ने नीचे जाकर आवाज दी। डाक्टर ने कहा, "शायद उसने पानी देखा होगा ।" हमारा उत्साह बढ़ा। हम फिर उतरे। आगे बढ़े। फिर दाहिनी ओर मुड़े और आखिर जिसके लिए आंखें तरस रही थीं उस प्रपात का सिर नजर आया। एक तंग घाटी के इस ओर हम खड़े थे और सामने अघनाशिनी का पानी, जिसे सुबह जीप की यात्रा के दरम्यान हमने तीन-चार बार लांघा था, यहां एक बड़े पत्थर के तिरछे पट पर से नीचे पहुंचने की तैयारी कर रहा था। गीत जिस प्रकार तम्बूरे के ताल के साथ ही सुना जाता है उसी प्रकार प्रपात के दर्शन भी नगारे के समान घब घब आवाज के साथ ही किये जाते हैं । उंचल्ली के प्रपात जोग का राजा की तरह एक ही छलांग में नीचे नहीं पहुंचता है। सुबह की पतली नींद के हरेक अंश का जिस प्रकार हम अर्ध-जाग्रत स्थिति में अनुभव लेते हैं, उसी प्रकार अघनाशिनी का पानी एक-एक सीढ़ी से कूदकर सफेद रंग का अनेक आकारों का परदा बनाता है। इतने शुभ्र पानी में संसार का काले से काला 'अघ' – पाप भी सहज ही धुल सकता है। जिस प्रकार धान पछोरने पर ग्रुप के दाने नाचते-कूदते दाहिनी ओर के कोने पर दौड़ते आते हैं, और साथ-साथ आगे भी बढ़ते हैं, उसी प्रकार यहां का पानी पहाड़ के पत्थर पर से उतरते समय तिरछा भी दौड़ता है और फेन के वलय बनाकर नीचे भी कूदता है । पानी एक जगह अवतीर्ण हुआ कि वह फौरन घूमकर अंगरखे के घेर की तरह या धोती के घुमाव की तरह फैलने लगता है और अनुकूल दिशा ढूंढकर फिर नीचे कूदता है । अब तो बिना यह जाने कि यह पानी इस प्रकार कितने नखरे करनेवाला और अंत में कहां तक पहुंचने वाला है, संतोष मिलनेवाला न था । हममें से चंद लोग बढ़े। फिर उतरे। और भी उतरे। पेड़ की लचीली डालियों को पकड़कर उतरे । ऐसा करते-करते पूरे प्रपात का अखंड साक्षात्कार करानेवाले एक बड़े पत्थर पर हम जा पहुंचे। उसपर खड़े होकर सामने की बड़ी ऊंची चट्टान से गिरते हुए पानी का पदक्रम देखना जीवन का अनोखा आनन्द था। हम टकटकी लगाकर पानी को देखते थे। मगर हम लोगों को देखने के लिए पानी के पास फुरसत न थी। वह अपनी मस्ती में चूर था । कपूर के चूर्ण में शुभ्र रंग का जो उत्कर्ष होता है, वही इस जीवनावतार में था । २१८ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy