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बिलकुल छोटा है। यह अघनाशिनी जहां समुद्र से मिलने के लिये उतावली होकर सह्याद्रि के पहाड़ पर से नीचे कूदती है, वही स्थान उंचल्ली प्रपात के नाम से पहचाना जाता है ।
हमने सिद्धापुर से शिरसी का रास्ता लिया। किन्तु शिरसी तक जाने के बदले एक रास्ता पश्चिम की ओर फूटता था, उससे हम नीलकुंद पहुंचे। वहां श्री गोपाल माडगांवकर के चाचा रहते थे । वे बड़े प्रतिष्ठित जमींदार थे। उनके आतिथ्य का स्वीकार करके हम उंचल्ली की खोज में निकल पड़े। नीलकुंद से होस-तोट ( नया बगीचा) जाना था। फौजी जीप का प्रबन्ध होने से जंगल का रास्ता कैसे तय करेंगे, यह चिंता करीबकरीब मिट गयी थी। होस - तोट से होन्ने कोंब ( सोने का सींग ) की ओर का रास्ता हमें लेना था। किंतु इस रास्ते से मोटर तो क्या, बैलगाड़ी या पालकी भी नहीं जा सकती थी। इसे तो बाघ का रास्ता कहना चाहिये । मनुष्य भी बाघ के जैसा बनकर ही ऐसे रास्ते से जा सकता है। हमने अपनी जीप को आराम करने के लिये एक पेड़ की छांह में छोड़ दिया और अथातो प्रपात जिज्ञासा' कहकर जंगल में रास्ता तय करना शुरू किया। होस तोट से एक स्थानिक नौजवान हाथ में एक बड़ा 'कोयता' लेकर हमें रास्ता दिखाने के लिये हमारे आगे चला । इस बेचारे को धीरे चलने की आदत नहीं थी, न सृष्टि-सौंदर्य निहारने की लत ! वह तो आगे ही आगे चलने लगा। हमें उसका बहुत ही कम लाभ मिला हम कुछ आये गये ऊपर चढ़े नीचे उतरे, फिर चढ़े और फिर उतरे। इतने में जंगल घना होने लगा। थोड़े समय के बाद वह घनघोर हो गया ।
सो स्टीप दि पाथ, दि फूट बाज फेन, एसिस्टेन्स फ्रॉम दि हैण्ड टु गेन ।
हमारी मुख्य कठिनाई तो पगडंडी की थी। वहां सूखे पत्ते इतने जमा हो गये थे कि पांव न फिसले तो ही गनीमत समझिये ! मेहरबानी मालिक की कि इन पत्तों में से सरसराता हुआ कोई सांप न निकला। वरना हमारी उंचल्ली वहीं की वहीं रह जाती। जहां सख्त उतार होता था वहां लाठी से पत्तों को हटाकर देखना पड़ता था कि कोई मजबूत पत्थर या किसी दरख्त की एकाध चीमड़ जड़ है या नहीं ।
दोपहर के बारह का समय था किन्तु पेड़ों की स्निग्ध-छाया' के अन्दर धूप आये तभी न ? चलकर यदि गरम न हो गये होते तो सर्दी ही लगती। जरा आगे बढ़ते और एक-दूसरे से पूछते, "हमने कितना रास्ता तय किया होगा ? अब कितना बाकी होगा ?" सभी अज्ञान ! किन्तु सिद्धापुर से एक आयुर्वेदिक डॉक्टर कैमरा लेकर हमारे साथ आये थे ! ये सज्जन एक साल पहले दूसरे किसी रास्ते से उंचल्ली गये थे । अपने पुराने अनुभव के आधार पर वे रास्ते का अंदाज हमें बताते थे । बीच-बीच में तो हमारा यह नाम मात्र का रास्ता भी बन्द हो जाता था । आगे अंदाज से ही चलना पड़ता था । किन्तु सच्ची मुसीबत रास्ता बन्द हो जाने पर नहीं, बल्कि तब होती है जब एक पगडंडी फूटकर दो पगडंडियां बन जाती हैं। जब सही रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं होता और अंधा अंदाज करनेवाले एक साथी की राय से दूसरे का अंधा अंदाज मेल नहीं खाता, तब 'यद भावि तद् भवतु' – जो होने वाला होगा सो होगा — कहकर किस्मत के भरोसे किसी एक पगडंडी को पकड़ लेना पड़ता है।
किसी ने कहा कि दूर से प्रपात की आवाज सुनाई देती है। मेरे कान बहुत तीक्ष्ण नहीं हैं। एक ने तो कभी का इस्तीफा दे दिया है और दूसरा काम-भर की बात सुनता है । किन्तु अपनी कल्पना शक्ति के बारे में मैं ऐसा नहीं कहूंगा। मैंने कान और कल्पना, दोनों के सहारे सुनने की कोशिश की। किन्तु जिसे प्रपात की आवाज कहें वैसी कोई आवाज सुनाई न दी । कहीं मधु मंक्खियां भनभनाती होतीं तो भी मैं कहता, "हां हां, प्रपात की आवाज सचमुच सुनाई देती है ।" कठिन यात्रा में साथियों के साथ झट सहमत हो जाने के यात्रा धर्म में मेरा पूर्ण विश्वास है किन्तु यहां मैं लाचार था।
विचार चुनी हुई रचनाएं / २१७