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________________ आजकल जैसे यात्रा के साधन जब नहीं थे और प्रकृति को परास्त करके उस पर विजय पाने का आनन्द भी मनुष्य नहीं मानते थे, तब लोग जाड़े के आखिर में यात्रा को निकल पड़ते थे और देश-देशान्तर की संस्कृतियों का निरीक्षण करके और सभी प्रकार के पुरुषार्थ साधकर वर्षा ऋतु के पहले ही घर लौट आते थे। उस युग में संस्कृति-समन्वय का 'मिशन' अपने हृदय पर वहन करनेवाले रास्ते अनेक खण्डों को एकदूसरे से मिलाते थे। जीवन-प्रवाह को परास्त करनेवाले पुलों की संख्या बहुत कम थी, जो थे वे सेतु ही थे। उन सेतुओं का काम था, जीवन-प्रवाह को रोक लेना और मनुष्यों के लिए रास्ता कर देना । लेकिन जब जीवन को यह बंधन असह्य-सा मालूम होने लगता था तब सेतुओं को तोड़ डालना और पानी के बहाव के लिए रास्ता मुक्त कर देना प्रवाह का काम होता था। यह था पुराना क्रम। यही कारण था कि नदी-नालों का बढ़ा हुआ पानी रास्तों और सेतुओं को तोड़े, उसके पहले ही मुसाफिर अपने-अपने घर लौट आते थे। इसलिए वर्षा ऋतु को वर्ष की महिमामयी ऋतु' माना है। असल में 'वर्ष' नाम ही वर्षा से पड़ा है। "हमने कुछ नहीं तो पचास बरसातें देखी हैं।" इन शब्दों से ही हमारे बुजुर्ग प्राय: अपने अनुभवों का दम भरते हैं। बचपन से ही वर्षा ऋतु के प्रति मुझे असाधारण आकर्षण रहा है। गरमी के दिनों में ठण्डे-ठण्डे ओले बरसानेवाली वर्षा सबको प्रिय होती है। लेकिन बादलों के ढेरों से लदी हुई हवाएं जब बहने लगती हैं, बिजलियां कड़कती हैं, और यह महसूस होने लगता है कि अब आकाश तड़ककर नीचे गिर पड़ेगा, तब की वर्षा की चढ़ाई मुझे बचपन से ही अत्यन्त प्रिय है। वर्षा के इस आनन्द से हृदय आकण्ठ भरा हुआ होने पर भी उसे वाणी के द्वारा व्यक्त न कर पाऊंगा और व्यक्त करने जाऊंगा तो भी उसकी तरफ हमदर्दी से कोई ध्यान न देगा, इस खयाल से मेरा दम घुटता था। आसपास की टेकरियों पर से हनुमान के समान आकाश में दौड़नेवाले बादल जब आकाश को घेर लेते थे, तब उसे देखकर मेरा सीना मानो भार से दब जाता था। लेकिन सीने पर का यह बोझ भी सुखद मालूम होता था। देखते-देखते विशाल आकाश संकुचित हो गया, दिशाएं भी दौड़ती-दौड़ती पास आकर खड़ी हो गईं और आसपास की सृष्टि ने एक छोटे से घोंसले का रूप धारण किया। इस अनुभूति से मुझे वह खुशी होती थी जो पक्षी अपने घोंसले का आश्रय लेने पर अनुभव करता है। लेकिन जब हम कारवार गये और पहली बार ही समुद्र-तट पर की वर्षा का मैंने अनुभव किया, तब के आनन्द की तुलना तो नई सृष्टि में पहुंचने के आनन्द के साथ ही हो सकती है। बरसात की बौछारों को मैंने जमीन को पीटते बचपन से देखा था। लेकिन उसी वर्षा को मानों बैत से समुद्र को पीटते देखकर और समुद्र पर उसके सांट उठे देखकर इतने बड़े समुद्र के बारे में भी मेरा दिल दया और सहानुभूति से भर जाता था। बादल और बर्षा की धाराएं जब भीड़ करके आकाश की हस्ती को मिटाना चाहती थीं तो उसका मुझे विशेष कुछ नहीं लगता था, क्योंकि बचपन से ही मैं इसका अनुभव करता आया था। लेकिन वर्षा की धाराएं और उनके सहायक बादल जब समुद्र को काटने लगते थे तब मैं बेचैन हो जाता था। रोना नहीं आता था, लेकिन जो कुछ अनुभव करता था उसे व्यक्त करने के लिए "फूट-फूटकर' २१४ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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