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समाधान अधिक होता है, आनन्द कम । इसी प्रकार संगठन, संश्लेषण अथवा सिंथेसेस सर्जनात्मक है इसलिए वह आनन्ददायक होता है। परन्तु सूर्य-किरणों की बात इससे उलटी ही है। सच पूछा जाय तो, इन्द्र-धनुष का परम आह्लाद, उसकी कोमलता, उसकी ताज़गी और उसके कारण हृदय में उत्पन्न होनेवाली गुदगुदी है; और वह तो सूर्य-किरणों के विश्लेषण से ही पैदा होती है। और जब हमें पता चलता है कि आकाश के असंख्य तारों के सूक्ष्म किरणों का पृथक्करण करने से प्रत्येक का इन्द्र-धनुष भिन्न-भिन्न प्रमाण का और भिन्न-भिन्न रंगों का होता है, और जब हमें बताया जाता है कि ये भांति-भांति के रंग अपने-अपने तारे में चांदी, तांबा, लोहा, सोना आदि जलती हुई धातुओं के कारण पैदा होते हैं, तो हमारी कल्पनाशक्ति दंग रह जाती है ! "विज्ञान काव्य को मार डालता है," कहनेवाले जानते नहीं कि विज्ञान के पास अपना कितना अद्भुत काव्य मौजूद है।
आज इन्द्र-धनुष को देखते हुए मन में विचार उठा कि इन्द्र-धनुष देखने से मुझे जो आनंद मिलता है, क्या वैसा ही या किसी अन्य प्रकार का आनन्द इस इन्द्र-धनुष को भी होता होगा? मन में कुछ विचार-मंथन हुआ और तुरन्त उत्तर निकल पड़ा-"क्यों नहीं ?" मैं समझ गया कि यह उत्तर आस्तिकता की ओर से मिला है; और इसे प्रश्न-रूप देकर आस्तिकता अधिक मजबूत हुई है।'
१. 'उड़ते फूल' से
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कालिदास का एक श्लोक मुझे बहुत ही प्रिय है। उर्वशी के अंतर्धान होने पर वियोग-विहल राजा परुरवा वर्षा-ऋतु के प्रारम्भ में आकाश की ओर देखता है। उसको भ्रान्ति हो जाती है कि एक राक्षस उर्वशी का अपहरण कर रहा है। कवि ने इस भ्रम का वर्णन नहीं किया; किन्तु वह भ्रम महज भ्रम ही है, इस बात को पहचानने के बाद, उस भ्रम की जड़ में असली स्थिति कौन-सी थी, उसका वर्णन किया है। पुरुरवा कहता है- 'आकाश में जो भीमकाय काला-कलूटा दिखाई देता है, वह कोई उन्मत राक्षस नहीं; किन्तु वर्षा के पानी से लबालब भरा हुआ एक बादल ही है। और यह जो सामने दिखाई देता है वह उस राक्षस का धनुष नहीं, प्रकृति का इन्द्र धनुष ही है। यह जो बौछार है, वह बाणों की वर्षा नहीं, अपितु जल की धाराएं हैं और बीच में यह जो अपने तेज से चमकती हुई नजर आती है, वह मेरी प्रिया उर्वशी नहीं, किन्तु कसौटी के पत्थर पर सोने की लकीर के समान विद्युल्लता है।"
कल्पना की उड़ान के साथ आकाश में उड़ना तो कवियों का स्वभाव ही है। किन्तु आकाश में स्वच्छन्द विहार करने के बाद पंछी जब नीचे अपने घोंसले में आकर इत्मीनान के साथ बैठता है, तब उसकी उस अनमति की मधरिमा कुछ और ही होती है। दुनिया भर के अनेकानेक प्रदेश घमकर स्वदेश लौटने के बाद मन को जो अनेक प्रकार का सन्तोष मिलता है, स्थैर्य का जो लाभ होता है और निश्चिन्तता का जो आनन्द मिलता है, वह एक चिरप्रवासी ही बता सकता है। मुझे इस बात का भी संतोष है कि कल्पना की उड़ान के बाद जल धाराओं के समान नीचे उतरने का संतोष व्यक्त करने के लिए कालिदास ने वर्षा-ऋतु को ही पसन्द किया।
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