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________________ पुराने लोग लिख गये हैं कि धनुष निकले तो उसे देखने के लिए दूसरों को निमंत्रण मत दो। इस सीख के पीछे हेतु क्या होगा, सो हमें नहीं मालूम। परन्तु सम्भव यह है कि हम धनुष देखने के लिए किसी को बुलायें और उसके आते-आते धनुष गायब हो जाये तो दोनों को हाथ मलकर रह जाना पड़ेगा । और यदि निमंत्रित व्यक्ति शंकाशील हुआ तो उसे यह भी लग सकता है कि धनुष-जैसी कोई चीज थी ही नहीं, मुझे झूठमूठ बुलाकर बनाया गया है। आज के धनुष को लुप्त होने की उतावली नही थी। हम उसे देर तक देखते रहे । उसका नशा चढ़ता ही गया । इस प्रकार बहुत समय बीत गया और स्वाभाविक था कि इस बीच पहले देखे हुए अनेक सुन्दर धनुषों का स्मरण हो । स्मरण के साथ-साथ वर्णन भी होने लगा । परन्तु जितने प्रसंग याद आए उन सभी का वर्णन कैसे हो सकता था ? प्रकृति के स्वामी ने इस तरह की रंगीन कमान क्यों खड़ी की होगी ? यह कल्पना तो अनपढ़ आदमी के दिमाग में भी उठती है कि भगवान ने स्वर्ग तक चढ़ने के लिए यह सीढ़ी खड़ी की है और इस तरह का वर्णन देश-देशान्तर के कवियों ने भी किया है। इसके जरिये मनुष्य स्वर्ग तक चढ़ सकता है या नहीं कौन जाने ? लेकिन इतना तो सच है कि हमारी दृष्टि उसकी दोनों ओर से बार-बार चढ़ती उतरती है और धन्यता महसूस करती है कि मैं एक पावन यात्रा कर रही हूं । थोड़ा समय बीता और धीमे-धीमे - एकदम मालूम न पड़े इतने धीमे - इन्द्रधनुष थोड़ा उत्तर की ओर खिसकता जान पड़ा। इसका कारण क्या होगा ? बात इतनी ही थी कि पूर्व की ओर से चढ़ता हुआ सूर्य सहज दक्षिण की ओर ढल रहा था। फलतः इन्द्र धनुष अपना आसन उत्तर की ओर खींच रहा था। इसी अनुपात में धनुष की कमान नीचे दब रही होगी; क्योंकि पूर्व की ओर सूर्य ऊपर चढ़ रहा था। परन्तु इस प्रकार का कोई फेरफार हमारी नजर में नहीं आया। बहुत देर तक हम धनुष की यह अद्भुत शोभा देखते रहे। बाद में ऐसा लगा कि जब तक यह धनुष दिखाई देता है तब तक यहां से हटना नहीं चाहिए। इतना निश्चय किया ही था कि इसके रंग फीके पड़ने लगे । देखते-देखते वह गायब हो गया। सारा का सारा तो एकदम गायब नहीं हुआ, उसके रंग फीके होते गए और जब वह बिल्कुल गायब हो गया तब भी कल्पना 'तस्मिन् एव आकाशे' उस धनुष को और उसके रंगों को देखती रही । मूल धनुष के बाद उसके स्थान पर यह जो काल्पनिक धनुष दिखाई देता है उसके रंग वही के वही होते हैं या प्रतियोगी होते हैं, यह शंका उसी समय उठी होती तो कितना अच्छा होता ! इन्द्र-धनुष तो गया, परन्तु उसकी खुशबू मन में कायम रही। उसकी गूंज सारे दिन सुनाई पड़ती रही । उसका स्पर्श दीर्घकाल तक आह्लाद देता रहा। उसका संगीत दिमाग में गूंजता रहा और उसका माधुर्व प्रत्येक स्मरण को रसपूर्ण बनाता रहा। चाहे जिस इन्द्रिय के द्वारा अनुभव किया हुआ आनन्द हो, जिस प्रकार वह एक ही आनन्द का अवतार होता है, उसी प्रकार, यदि हृदय की उत्कटता से किसी एक-आध आनन्द का अनुभव किया गया हो तो उसके अनेक अवतार, एक के बाद एक भिन्न-भिन्न इन्द्रियों को जाग्रत करते हैं और तृप्त करते हैं । इस प्रकार वे सिद्ध करते हैं कि हमारी सब इन्द्रियां एक ही आनंद की भिन्न-भिन्न कुंजियां हैं। इन्द्र-धनुष बालक से लेकर वृद्ध तक प्रत्येक को आनन्द देता है । मनुष्य की जैसी और जितनी उम्र होगी उसके अनुसार ही उसे आनन्द मिलेगा । पकी हुई उम्र का आनन्द भी पका हुआ होता है, परन्तु यहां पके हुए का अर्थ बासी या चीमड़ नहीं बल्कि गहरा, उत्कट और बहुविध है। हम मानते हैं कि पृथक्करण विश्लेषण अथवा एनालिसेस बुद्धि का वैज्ञानिक व्यापार है, इसलिए उसमें २१२ | समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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