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________________ करके हिन्दुस्तान को हिन्द महासागर में जो स्थान दिया गया है, वह समुद्र-विमुख होने के लिए हरगिज नहीं हैं। वह तो अहिंसा के विश्व धर्म का परिचय सारे विश्व को कराने के लिए हैं।" यूरोप के महायुद्ध के अन्त में दुनिया का रूप जैसा बदलनेवाला होगा वैसा बदलेगा। किन्तु असंख्य भारतीय प्रवास-वीर अर्णव का आमंत्रण सुनकर, वरुण से दीक्षा लेकर, धीरे-धीरे देश-विदेश में फैलेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है । सागर के पृष्ठ पर हमारे अनेकानेक जहाज डोलते हुए देख रहा हूं। उनकी अभय-पताकाओं को आकाश में लहराते देख रहा हूं और मेरा दिल उछल रहा है। अर्णव के आमंत्रण को अब मैं खुद शायद स्वीकार नहीं कर सकता, फिर भी नौजवानों के दिलों तक उसे पहुंचा सकता हूं, यही मेरा अहोभाग्य है। वरुण-राजा को मेरा नमस्कार है । जय वरुण राज्य की जय।' १. 'जीवन लीला' से सूर-धनु फा मनन मंत्री से रहा न गया। सचमुच दृश्य ही ऐसा था कि रहा नहीं जा सकता था। इतना अधिक आनन्द किसी एक के दिल में कैसे समाता? वे बोल उठे, “पश्चिम में इन्द्र-धनुष शान से तना है। कितना सन्दर ! देखने लायक !" हम प्रातःप्रार्थना के बाद साधना-क्रम के बारे में कुछ लिख रहे थे। इसी बीच मंत्रीजी का आमंत्रण मिला। हम समझ गए कि बात कुछ असाधारण है। उन्होंने पश्चिम की ओर का द्वार खोला और प्रकृति का नाट्य एकदम दृष्टि के सामने फैल गया। धनुष के दोनों छोर क्षितिज को छू रहे थे और पूरा धनुष अर्धवर्तलसा गीली राख जैसे बादल पर उभरा हुआ था। सबसे पहले मेरा ध्यान उसके ऊपरी भाग पर गया। नीचे लटकती हुई उसकी जामुनी रंग की आडी पट्टी की ओर । इतनी सजीवता से निखरी हुई पट्टी हमेशा देखने को नहीं मिलती। जब कभी पुरा इन्द्र-धनुष देखने को मिलता है, सारा-का-सारा एक समान उभरा हुआ दिखाई नहीं पड़ता। आज के इन्द्र-धनुष में बादलों की पृष्ठ-भूमि अच्छी थी ; इसलिए वह सारा-का-सारा एक समान उभरा हुआ था। निचले सिरों में लाल और पीला रंग अधिक निखरा था। जरा-सा ऊपर आने पर हरा रंग ध्यान को अपनी ओर खींच लेता था। शायद इसका कारण यह था कि दक्षिणी छोर के इर्द-गिर्द पेड़ों का हरा रंग छाया हुआ था। वह इन्द्र-धनुष के हरे रंग को खा जाता होगा और इसलिए उसका प्रतियोगी लाल और पडोसी पीला दोनों रंग अधिक खिले हए होंगे। ऊपर के भाग में ये तीनों रंग कुछ सौम्य हए और जामनी रंग का गहरापन बढ़ा। जिस तरह राम के साथ लक्ष्मण के और भगवान बुद्ध के साथ भिक्षु आनन्द के होने की आशा की जाती है उसी तरह इन्द्र-धनुष के साथ उसके प्रति-धनुष को खोजने के लिए भी नजर दौड़ती है। धनुष के बाहर दोनों छोरों पर प्रति-धनुष के रंग उल्टे क्रम में दिखलाई पड़ते थे। जितना भाग दीखता था उतना स्पष्ट था; परन्तु मूल धनुष का आकर्षण कम करने की शक्ति उसमें नहीं थी। विचार : चुनी हुई रचनाएं | २११
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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