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________________ भी है। जब उसने देखा कि मैंने इनको समुद्र का राज्य दिया, किन्तु इन लोगों ने राजा के उचित न्याय-धर्म का पालन नहीं किया तब वरुण राजा ने अपना आशीर्वाद वापस ले लिया और इन सब लोगों को जलोदर की सजा दी। अब ये हिन्दुस्तान और अफ्रीका से जो संपत्ति लाये थे, उसका उपयोग आपस में लड़ने के लिये करने लगे हैं और अपने प्राणों के साथ वह सारी संपत्ति जल के उदर में पहुंचा रहे हैं । समुद्र-यान हो या आकाश-यान हो, अन्त में उसे समुद्र के जल के उदर में पहुंचना ही है। अब वरुण राजा क्रुद्ध हुए हैं। उन्हें अब विश्वास हो गया है कि सागर से सेवा लेनेवालों में यदि सात्विकता न हो तो वे संसार में उत्पात मचानेवाले हो जाते हैं। अब तक उन्होंने विज्ञान-शास्त्रियों और ज्योतिष शास्त्रियों को, विद्यार्थियों और लोकसेवकों को समुद्र-यात्रा की प्रेरणा दी थी। अब वे हिन्दुस्तान को नये ही किस्म की प्रेरणा देना चाहते हैं : हिन्दुस्तान के सामने एक नया 'मिशन' रखना चाहते हैं । क्या उसे सुनने के लिए हम तैयार हैं ? । हम पश्चिम समुद्र के किनारे पर रहते हैं। दिन-रात पश्चिम सागर' का निमंत्रण सुनते हैं। अब तक बहरे थे। यह संदेश हमारे कानों पर जरूर पड़ता था; किन्तु अन्दर तक नहीं पहुंच पाता था। अब यह हालत नहीं रही है। यूरोप की महाप्रजा ने हमारे ऊपर राज्य जमाकर हमें मोहिनी में डाल रखा था। अब यह मोहिनी उतर गयी है। अब हमारे कान खुल गये हैं । संसार के नक्शे की ओर हम नई दृष्टि से देखने लगे हैं। अब हम समझने लगे हैं कि महासागर भूखंडों को तोड़ते नहीं बल्कि जोड़ते हैं। अफ्रीका का सारा पूर्व किनारा और कलकत्ता से लेकर सिंगापुर आल्बनी (आस्ट्रेलिया) तक का पूर्व की ओर का पश्चिम किनारा हमें निमंत्रण देता कि ईश्वर ने तुम्हें जो ज्ञान, चरित्न और वैभव दिया है, उसका लाभ यहां के लोगों को भी पहुंचाओ।' एक ओर अफ्रीका है, दूसरी ओर जावा है, बाली है, आस्ट्रेलिया है, उस्मानिया है और प्रशान्त महासागर के असंख्य टापू हैं। ये सब अर्णव की वाणी से हमें पुकार रहे हैं। इन सब स्थानों में सागर से प्रेरणा लेकर अनेक मिशनरी गये थे। किन्तु वे अपने साथ सब जगह शराब ले गये, वंश-वंश के बीच का ऊंच-नीच भाव ले गये, ईसा मसीह को भूलकर सिर्फ उनका बाईबिल ले गये। और इस बाईबिल के साथ उन्होंने अपने-अपने देश का व्यापार चलाया। अर्णव उन्हें जरूर ले गया था। किन्तु वरुण उन पर नाराज हुआ है। हम भारतवासी प्राचीन काल में चीन गये, भवनों के देश ग्रीस तक गये, जावा और बाली की ओर गये। हमने 'सर्वे सन्तु निरामयाः' की संस्कृति का विस्तार किया। किन्तु हमने उन स्थानों में अपने साम्राज्य की स्थापना करने की दुर्बुद्धि नहीं रखी। दूसरों के मुकाबले में हमारे हाथ साफ हैं। अतः वरुण का हमें आदेश हुआ है। अर्णव हमें आमंत्रण दे रहा है और कह रहा है, "दूसरे लोग विजय-पताका लेकर गये; तुम अहिंसा धर्म की तिरंगी अभय-पताका लेकर जाओ और जहां जाओ वहां सेवा की सुगन्ध फैलाते रहो। शोषण के लिए नहीं, बल्कि पिछड़े हुए लोगों के पोषण और शिक्षण के लिए जाओ। अफ्रीका के शालिग्राम बर्ण के तुम्हारे भाई तुम्हें पुकार रहे हैं। पूर्व की ओर के केतकी सुवर्ण वर्ण के तुम्हारे भाई तुम्हारी राह देख रहे हैं। इन सब लोगों की सेवा करने के लिए जाओ और सब लोगों से कहो कि अहिंसा ही परम धर्म है। ऊंच-नीच-भाव, अभिमान, अहंकार जैसी हीन वत्तियों को इस धर्म है स्थान नहीं हो सकता। भोग और ऐश्वर्य, दोनों जीवन के जंग है (जीवन को दूषित करने वाले हैं)। संयम और सेवा, त्याग और बलिदान, यही जीवन की कृतार्थता है। यह धर्म जिन लोगों ने समझा है, वे सब निकल पढ़ो। पूर्व सागर और पश्चिम सागर के बीच में दक्षिण की ओर घुसनेवाला हजारों मील का किनारा तैयार १. हमारे इस पड़ोसी को हम 'अरबी समुद्र' के नाम से पहचानते हैं, यह विचित्र बात है। विलायत से आने वाले गोरे लोग उसे 'अरबी समुद्र' भले कहें। हमारे लिये तो यह बम्बई समुद्र या पश्चिम सागर है । यही नाम हमें चलाना चाहिये । २१० / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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