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________________ जाया जा सकता था, उस बन्दरगाह का नाम ही उन लोगों ने ताम्रलिप्ति रख दिया। इस प्रकार ताम्रद्वीप लंका में अंग-बंग के बंगाली, उड़ीसा के कलिंग और पश्चिम के गुजराती एकत्र हुए। मद्रास की ओर से द्रविड़ तो वहां कब के पहंच चुके थे। इस प्रकार पूर्व, पश्चिम और दक्षिण भारत अब अपने-अपने अर्णवों के आमंत्रण से लंका में एक हुआ। भगवान बुद्ध ने निर्वाण का रास्ता ढूंढ़ निकाला और अपने शिष्यों को आदेश दिया कि 'इस अष्टांगिक धर्मतत्व का प्रचार दसों दिशाओं में करो।' खुद उन्होंने उत्तर भारत में चालीस साल तक प्रचार कार्य किया। अपना राज्य आसेतु-हिमाचल फैलाने के लिये निकले हुये सम्राट अशोक को दिग्विजय छोड़कर धर्म विजय करने की सूझी। धर्म विजय का मतलब आज की तरह धर्म के नाम पर देश-देशान्तर की प्रजा को लूटकर, गुलाम बनाकर भ्रष्ट करना नहीं था, बल्कि लोगों को कल्याण का मार्ग दिखाकर अपना जीवन कृतार्थ करने का अष्टांगिक मार्ग दिखाना था। जो भगवान बुद्ध खुद अकुतोभय गैंडे की तरह जंगल में घूमते थे, उनके साहसिक शिष्य अर्णव का आमंत्रण सुनकर देश-विदेश में जाने लगे। कुछ पूर्व की ओर गये, कुछ पश्चिम की ओर, आज भी पूर्व और पश्चिम समुद्र के किनारों पर इन भिक्षुओं के बिहार पहाड़ों में खुदे हुए मिलते हैं। सोपारा, कान्हेरी, धारापुरी आदि स्थल बौद्ध मिशनरियों की विदेश यात्रा के सूचक हैं। उड़ीसा की खंडगिरि, उदयगिरि की गुफाएं भी आज इसी बात का सबूत दे रही हैं। इन्हीं बौद्धधर्मी प्रचारकों से प्रेरणा पाकर प्राचीन काल के ईसाई भी अर्णव-मार्ग से चले और उन्होंने अनेक देशों में भगवद्भक्त ब्रह्मचारी यीशु का संदेश फैलाया। जो स्वार्थवश समुद्र-यात्रा करते हैं, उन्हें भी अर्णव सहायता देता है। किन्तु वरुण कहता है, “स्वार्थ लोगों को मेरी मनाही है, निषेध है। किन्तु जो केवल शुद्ध धर्म-प्रचार के लिए निकलेंगे, उन्हें तो मेरे आशीर्वाद ही मिलेंगे। फिर वे महिन्द या संघमित्रा हों या विवेकानन्द हों। सेंट फ्रान्सिस जेवियर हों या उनके गुरु इग्नेशियस लोयला हों।" अब अर्णव की मदद लेनेवाले स्वार्थी लोगों के हाल देखें। मकरानी लोग बलूचिस्तान दक्षिण में रहकर पश्चिम सागर के तट की यात्रा करते थे। इसलिए हिन्दुस्तान की तिजारत उन्हीं के हाथ में थी। आग्रह के साथ वे उसको अपने ही हाथों में रखना चाहते थे। अतः एक वरुण पुत्र को लगा कि हमें दूसरा दरियायी रास्ता ढूंढ निकालना चाहिए। वरुण ने उससे कहा कि अमुक महीने में अरबस्तान से तुम्हारा जहाज भरसमुद्र में छोड़ेंगे तो सीधे कालीकट तक पहुंच जाओगे। एक-दो महीनों तक तुम हिन्दुस्तान में व्यापार करना और वापस लौटने के लिए तैयार रहना, इतने में मैं अपने पवन को उलटा बहाकर जिस रास्ते तुम आये उसी रास्ते से तुम्हें वापस स्वदेश में पहुंचा दूंगा। यह किस्सा ई० पू०५० साल का है। प्राचीन काल में दूर-दूर पश्चिम में बाइकिंग नामक समुद्री डाकू रहते थे। वे वरुण के प्यारे थे। ग्रीनलैंड, आइसलैंड, ब्रिटेन और स्कैन्डिनेविया के बीच के ठंडे और शरारती समुद्र में वे यात्रा करते थे। आज के अंग्रेज लोग उन्हीं के वंशज हैं । समुद्र किनारे पर स्थित नॉर्वे ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन और पुर्तगाल देशों ने बारीबारी से समुद्र की यात्रा की। इन सब लोगों को हिन्दुस्तान आना था। बीच में पूर्व की ओर मुसलमानों के राज्य थे। उन्हें पारकर या टालकर हिन्दुस्तान का रास्ता ढूंढ़ना था। सबने वरुण की उपासना शुरू की और अर्णव के रास्ते से चले। कोई गये उत्तर ध्रुव की ओर, कोई गये अमरीका की ओर। चन्द लोगों ने अफ्रीका की उलटी प्रदक्षिणा की और अन्त में सब हिन्दुस्तान पहुंचे। समुद्र यानी लक्ष्मी का पिता। उसमें जो यात्रा करे वह लक्ष्मी का कृपापान अवश्य होगा। इन सब लोगों ने नये-नये देश जीत लिये, धन दौलत जमा की। किन्तु वरुणदेव का न्यायासन वे भूल गये। वरुणदेव न्याय के देवता हैं। उसके पास धीरज भी है, पुण्यप्रकोप विचार : चुनी हुई रचनाएं / २०६
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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