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ने जो पाप किये और उत्पात मचाये हैं, उनको क्षमा करने की शक्ति प्राप्त हो; इसलिए महासागर को इतना हृदय का व्यायाम करना पड़ता है।'
जो लहरें दुर्बल लोगों को डराकर दूर रखती हैं, वही लहरें विक्रम के रसियों को स्नेहपूर्ण और फेनिल निमंत्रण देती हैं और कहती हैं : 'चलिए ! इस स्थिर जमीन पर क्यों खड़े हैं ? इस तरह खड़े रहेंगे तो आप पर जंग चढ़ने लगेगा। लीजिये, एक नाव, हो जाइये उस पर सवार, फैला दीजिये उसके पाल और चलिये वहां, जहां पवन का प्राण आपको ले जाये। हम सब हैं तो सागर के बच्चे, किन्तु हमारा शिक्षागुरु है पवन । वह जैसे नचाये वैसे हम नाचते हैं। आप भी यही व्रत लीजिये, और चलिये हमारे साथ।' जिस दिल में उमंग होती है, वह ऐसे निमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सकता।
बचपन में सिंदवाद की कहानी आपने नहीं पढ़ी? सिंदबाद के पास विपुल धन था, जमीन-जागीर आदि सब कुछ था। अपने प्रेम से उसका जीवन भर देनेवाले स्वजन भी उसके आसपास बहुत थे। फिर भी जब समुद्र की गर्जना वह सुनता था तब उससे घर में रहा नहीं जाता था। लहरों के झूले को छोड़कर पलंग पर सोनेवाला पामर है । दिल ने कहा 'चलो !' और सिंदबाद समुद्र की यात्रा के लिए चल पड़ा। उसमें काफी हैरान हुआ। उसे मीठे अनुभवों की अपेक्षा कड़वे अनुभव अधिक हुए। अतः सही-सलामत वापस लौटने पर उसने सौगंध खाई कि अब मैं समुद्र यात्रा का नाम तक नहीं लूंगा।
किन्तु अन्त में यह था तो मानवी संकल्प। इस संकल्प को सम्राट वरुण का आशीर्वाद थोडे ही मिला था ! कुछ दिन बीते । गृहस्थी जीवन उसे फीका मालूम होने लगा। रात को वह सोता था, किन्तु नींद नहीं आती थी। लहरें उसके साथ लगातार बातें किया करती थीं। उत्तर-रात्रि में जरा नींद का झोंका आ जाता तो स्वप्न में भी लहरें ही उछलतीं और अपनी उंगलियां हिलाकर उसे पुकारतीं। बेचारा कहां तक जिद पकड़कर रहे ? अनमना होकर जरा-सा घूमने जाता, तो उसके पैर उसे बगीचे का रास्ता छोड़कर समुद्र की सफेद और चमकीली बाल की ओर ही ले जाते। अंत में उसने अच्छे-अच्छे जहाज खरीदे, मजबूत दिलवाले खलासियों को नौकरी पर रखा, तरह-तरह का माल साथ में लिया और 'जय दरिया पीर' कहकर सब जहाज समुद्र में आगे बढ़ा दिये।
___यह तो हुई काल्पनिक सिंदवाद की कहानी। किन्तु हमारे यहां का सिंहपुत्र विजय तो ऐतिहासिक पुरुष था। पिता उसे कहीं जाने नहीं देता था। उसने बहुत आजिजी की, किन्तु सफल नहीं हुआ। अन्त में ऊबकर उसने शरारत शुरू की। प्रजा त्रस्त हुई और राजा के पास जाकर कहने लगी, "राजन् या तो अपने लड़के को देशनिकाला दे दीजिये या हम आपका देश छोड़कर बाहर चले जाते हैं।" पिता बड़े-बड़े जहाज लाया। उनमें अपने लड़के को और उसके शरारती साथियों को बिठा दिया और कहा, “अब जहां जा सकते हो, जाओ। फिर यहां अपना मुंह नहीं दिखाना।" वे चले। उन्होंने सौराष्ट्र का किनारा छोड़ा, भृगुकच्छ छोड़ा, सोपारा छोड़ा, दामोल छोड़ा, ठेठ मंगलापुरी तक गये। वहां पर भी वे रह नहीं सके। अतः हिम्मत के साथ आगे बढ़े और ताम्रद्वीप में जाकर बसे। वहां के राजा बने। विजय के पिता ने अपने लड़के को वापस आने के लिए मना किया था; किन्तु उसके पीछे कोई न जाये, ऐसा हुक्म नहीं निकाला था। अतः अनेक समुद्र वीर विजय के रास्ते जाकर नई-नई विजय प्राप्त करने लगे। वे जावा और बालीद्वीप तक गये। वहां की समृद्धि, वहां की आबहवा और वहां का प्राकृतिक सौंदर्य देखने के बाद लौटने की इच्छा भला किसे होती? फिर तो घोघा का लड़का सारा पश्चिम किनारा पार करके लंका की कन्या से विवाह करे यह लगभग नियमसा बन गया।
जिधर बंगाल के नदी पुत्र नदी-मुखेन समुद्र में प्रवेश करने लगे, जिस बन्दरगाह से निकलकर ताम्रद्वीप
२०८ / समन्वय के साधक