________________
यह शब्द काम में लेने की इच्छा होती है। वर्षा चाहे तो पहाड़ों पर धावा बोल सकती है, चाहे खेतों को तालाब और रास्तों को नाले बना सकती है। लेकिन समुद्र को अपनी दरी समेटने के लिए बाध्य करना मर्यादा का अतिक्रमण-सा मालूम होता था। अवज्ञा के इस दृश्य को देखने में भी मुझे कुछ अनुचित-सा प्रतीत होता था।
अपनी यह वेदना मैंने भूगोल विज्ञान से दूर की। मैं समझने लगा कि सूर्यनारायण समुद्र से लगान लेते हैं और इसलिए तप्त हवा में पानी भी छिपकर बैठती है। यही नमी भाप के रूप में ऊपर जाकर ठण्डी हई कि उसके बादल बन जाते हैं, और अन्त में इन्हीं बादलों से कृतज्ञता की धाराएं बहने लगती हैं, और समुद्र को फिर से मिलती हैं।
गीता में कहा गया है कि यह जीवन चक्र प्रवर्तित है इसलिए जीवसृष्टि भी कायम है। इसी जीवन चक्र को गीता ने 'यज्ञ' कहा है । यह यज्ञ-चक्र यदि न होता तो सृष्टि का बोझ भगवान के लिए भी असाह्य हो जाता। यज्ञ-चक्र के मानी ही हैं परम्परावलम्बन द्वारा सधा हुआ स्वाश्रय । पहाड़ों पर से नदियों का बहना, उनके द्वारा समुद्र का भर जाना, फिर समुद्र के द्वारा हवा का आर्द्र होना; सुखी हवा के तृप्त होते ही उसका अपनी समृद्धि को बादलों के रूप में प्रवाहित करना और फिर उनका अपने जीवन का अवतार-कृत्य प्रारम्भ करना-इस भव्य रचना का ज्ञान होने पर जो संतोष हुआ, वह इस विशाल पृथ्वी से तनिक भी कम नहीं था।
तब से हर बारिश मेरे लिए जीवन-धर्म की पुनर्दीक्षा बन चुकी है।
वर्षा ऋतु इस तरह सृष्टि का रूप बदल देती है, उसी तरह मेरे हृदय पर भी एक नया मुलम्मा चढाती है। वर्षा के बाद मैं नया आदमी बनता हूं। दूसरों के हृदय पर वसन्त-ऋतु का जो असर होना है, वह असर मुझ पर वर्षा से होता है। (यह लिखते-लिखते स्मरण हुआ कि साबरमती जेल में था तब वर्षा के अन्त में कोकिला को गाते हुए सुनकर वर्षान्ते शीर्षक से एक लेख मैंने गुजराती में लिखा था।)
गर्मी की ऋतु भमाता की तपस्या है। जमीन के फटने तक पृथ्वी गर्मी की तपस्या करती है और आकाश से जीवन दान की प्रार्थना करती है। वैदिक ऋषियों ने आकाश को 'पिता' और पृथ्वी को 'माता' कहा है। पृथ्वी की तपश्चर्या को देखकर आकाश पिता का दिल पिघलता है। वह उसे कृतार्थ करता है। पृथ्वी बालतणों से सिहर उठती है और लक्षावधि जीवसृष्टि चारों ओर कूदने-विचरने लगती है। पहले से ही सृष्टि के इस आविर्भाव के साथ मेरा हृदय एकरूप होता है। दीमक के पंख फूटते हैं और दूसरे दिन सुबह होने से पहले ही सबकी सब मर जाती हैं। उनके जमीन पर बिखरे हुए पंख देखकर मुझे कुरुक्षेत्र याद आता है। मखमल के कीडे जमीन से पैदा होकर अपने लाल रंग की दोहरी शोभा दिखाकर लुप्त हुए कि मुझे उनकी जीवन-श्रद्धा का कौतूक होता है। फूलों की विविधता को लजानेवाले तितलियों के परों को देखकर में प्रकृति से कला की दीक्षा लेता हूं। प्रेमल लताएं जमीन पर विचरने लगीं, पेड़ पर चढ़ने लगी और कुएं की थाह लेने लगीं कि मेरा मन भी उनके जैसा ही कोमल और 'लागूती' (लगोहां) बन जाता है, इसलिए बरसात में जिस तरह बाह्य सृष्टि में जीवन समृद्धि दिखाई देती है, उसी तरह की हृदय-समृद्धि मुझे भी मिलती है। और बारिश शेष होकर आकाश के स्वच्छ होने तक मुझे एक प्रकार की हृदय-सिद्धि का भी लाभ होता है। यही
विचार : चुनी हुई रचनाएं | २१५