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किन्तु बापूजी के साथ अखण्ड रहनेवाले महादेवभाई को 'सत्संग' शब्द के पीछे गहरी भावना दिखाई दी । महादेवभाई की डायरी में जब यह बात मैंने पढ़ी तब मुझे इतना समाधान हुआ कि मेरे साथ जो पांच महीने बापूजी को बिताने पड़े, उसमें उनको कुछ सन्तोष मिला। इसके लिए मैं सदा आकाश के तारों का कृतज्ञ रहूंगा ।
२६ : ग्रामोद्धार की भूमिका
मैं शाहपुर बेलगाम का रहनेवाला । मेरी दिलचस्पी गुप्त क्रान्तिकारी प्रवृति में और राष्ट्रीय शिक्षण में। इन दोनों कामों में दिलचस्पी रखनेवाले प्रान्तीय राजनैतिक नेता श्री गंगाधरराव देशपाण्डे लोकमान्य तिलक के विश्वास के आदमी थे । उनके साथ मेरा परिचय स्वाभाविक रीति से था ही।
उनके सब कामों में बाहोशी से मदद करनेवाले एक नवयुवक थे— गोविन्दराव मालगी और उनके परिवार के लोग । गोविन्दराव और मैं हाईस्कूल में एक ही वर्ग में पढ़ते हुए हमारी दोस्ती नाम की ही थी । गंगाधरराव के अंगत मंत्री थे श्री पुण्डलीकजी कानगड़े। इन सबके साथ मेरा परिचय बढ़ता गया । स्वराज्यआन्दोलन में हिस्सा लेने के गुनाह में सरकार ने मुझे पकड़कर अनेक जेलों में रखा था। उसमें बेलगाम के नजदीक की बड़ी जेल में, जिसको हिंड़लगा जेल करते थे, मुझे भेज दिया। वहां सूत कातने की सहूलियत नहीं दी । तब मैंने सात दिन का उपवास किया। बाद में इजाजत मिली। उपवास करनेवाले शरारती कैदी माने जाते थे; इसलिए शरारती गिने जानेवाले पुण्डलीकजी का साथ मुझे मिला । हमारी पुरानी दोस्ती थी, इसलिए हम दुनिया भर के सवालों की चर्चा करने लगे । पुण्डलीक को लगा कि इन चर्चाओं के परिणामस्वरूप लेख लिखें तो अच्छा होगा । हमने बीस-पच्चीस विषय पसन्द किए और उनपर लिखना शुरू किया।
स्वराज्य के आन्दोलन को गांवों तक पहुंचाना हो, तो ग्रामोद्धार की कोई योजना होनी चाहिए। पुरानी संस्कृति में से निकलनेवाले भले-बुरे रिवाज और उनके बारे में बंधी हुई मान्यताएं, वही थी ग्राम लोगों की संस्कारिता । उसमें वे लोग अच्छे दृढ़ रहते थे । ग्राम- सेवा करनेवाले पुराने सन्तों की वह प्रसादी थी ।
इन सारे पुराने रिवाजों और विचारों को सुधारकर उन्हें ताजे भविष्योपयोगी और प्राणवान् किये बिना स्वराज्य का आन्दोलन गांवों तक नहीं पहुंच पायगा, और ग्रामीण जनता क्रान्ति के लिए तैयार नहीं होगी ऐसे निर्णय पर आने के बाद उसी प्रवृति के पीछे कैसा तत्वज्ञान होना चाहिए, उसका चिन्तन हमने लिखना शुरू किया । उसमें धर्म-विचार तो आना ही था ।
जेल के बाहर आए, उसके बाद किताब हिन्डलग्याचा प्रसाद १६३५-३६ की पांडुलिपि अनेक लोगों ने देखी। उसका महत्व और उपयोगिता ध्यान में लेकर श्री गंगाधरराव ने उसे पुरस्कृत किया । मराठी में लिखी हुई इस किताब का गुजराती और हिन्दी में अनुवाद हुआ। कुल मिलाकर इस किताब का अच्छा असर हुआ । कार्यकर्ताओं के विचार क्रान्ति के अनुकूल हुए, और जनता भी उस दिशा में सोचने लगी ।
१९८ / समन्वय के साधक