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गणित में उतरने के जैसी कुशलता और उत्साह है, उसी तरह से यन्त्र - बुद्धि में भी मेरा दिमाग अच्छा चलता है । तदुपरान्त खादी ग्रामोद्योग में रही सौन्दर्य कला में भी देश को मेरा कुछ सहयोग मिल सकेगा ।
इसीलिए तो श्री काले के चर्चे को एक लाख रुपये का इनाम दिया जाय या नहीं, उसके निर्णय के लिए समिति नियुक्त की, उस समय बापूजी को मेरा नाम तुरन्त याद आया। उसके बाद भी चर्चे के बारे में जब भी पूजी को कोई नया विचार सूझता था अथवा कोई नयी उलझन खड़ी होती थी तब बापूजी मुझे प्रेम से बुला लेते थे । यरवदा निवास के कारण बापूजी मेरे दिमाग का एक पहलू समझ सके, इसलिए भी यरवदा जेल के प्रति मेरे मन में कृतज्ञ - बुद्धि है ।
२८ :: आकाश दर्शन और पूज्य बापूजी
सन् १९३० में पूज्य बापूजी के साथ मैं यरवदा जेल में था। जेल में हमको कमरे में बन्द रखने के बदले रात को खुले में सोने की इजाजत थी, उसका लाभ लेकर मैंने अपना प्यारा उद्योग अथवा विनोद चालू किया। आकाश के तारे शाम से दिखाई देते थे पूर्व में नए-नए उगते रहते थे। सारी रात आकाश की मुसाफिरी करके सुबह अस्त होते थे। यह देखने में मुझे बहुत आनन्द आता था । २७ नक्षत्र, उनके आकार इत्यादि मैं अच्छी तरह जानता था । आकाश के बारह विभाग की कल्पना करके हरेक विभाग को राशि कहते हैं। उनमें वृश्चिक जैसी राशि के आकार मेरा ध्यान आकर्षित करते थे । आकाश में दिन को सूरज और रात को चन्द्र और ग्रहों की गति देखने में मुझे बहुत आनन्द आता था ।
ऐसा आनन्द पूज्य बापूजी को दिये बिना मैं कैसे रह सकता था ? इसलिए रात को सोने से पहले और सुबह प्रकाश होने से पहले उन ग्रहों और नक्षत्रों की ओर बापूजी का ध्यान मैं खींचता था। मुझे निराश न करने के हेतु मैं बापूजी वह सब देखते, किन्तु उनको उसमें उत्कट रस सचमुच पैदा नहीं हुआ था ।
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दिन में जब बापूजी को फारिग देखता तो पंचांग में चन्द्र और ग्रह उस दिन कौन से नक्षत्र में हैं, वह बापूजी को समझाता । उसके बाद पूना के हमारे स्नेही प्रो० त्रिवेदी के पास से पश्चिम के ज्योतिष शास्त्र की किताबें मैंने मंगवाईं । आकाश के ताराओं के नक्शे मंगवाए। वह भी सब बापूजी को दिखाने लगा। मैं मानता था कि राजनैतिक परिस्थिति और चर्चा-सुधार के चिन्तन में से निकालने के लिए बापूजी को थोड़ा-सा प्रयत्न करूं तो वह अच्छा ही रहेगा। बापूजी को लगता होगा कि 'अपना साथी इतने उत्साह से समझाता है तो उसमें कुछ तो रस दिखाना ही चाहिए ।'
फिर मैं जेल से छूट गया, अपने काम में लग गया। बापूजी भी छूटे और फिर से पकड़े गए। १९३२ की साल में न जाने कैसे आकाश के तारों के बारे में दिलचस्पी बापूजी को यकायक जाग्रत हो उठी। फिर तो पूछना ही क्या था ! तरह-तरह की किताबें उन्होंने मंगवाईं । स्वयं उन्हें पढ़ते। मैं जिस जेल में रहता, वहां मेरे लिए भेज देते । पत्र लिखने की सहूलियत होती तब आकाश के तारों के बारे में अपना आनन्द व्यक्त करते और कभी-कभी कुछ जानकारी भी लेते । सन् १९३२ के संघर्ष में मुझे अनेक जेलों में जाना पड़ा था। वहां आकाश के तारों का आनन्द तो मुझे मिलता ही था, किन्तु बापूजी के साथ उस आनन्द के लेन-देन का हर्ष तो अनोखा और अनेक गुना होता था।
जेल से छूटने के बाद बापूजी ने आकाश दर्शन के आनन्द विषयक एक लेख लिखा था, जिसमें मेरे सहबास का उल्लेख किया। उसके लिए बापूजी ने 'सत्संग' शब्द काम में लिया। मैं तो उसको विनय ही मानता हूं,
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा / १६७