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के लोग पेसिव रिजिस्टेन्स - निशस्त्र - प्रतिकार कहते हैं। गांधीजी का सत्याग्रह और यह निःशस्त्र प्रतिकार दीखते एक-से हैं, किन्तु उसमें मौलिक भेद है। गांधीजी ने इस विषय में अच्छी स्पष्टता की है। हरेक नागरिक को और समाज सेवक को यह साहित्य पढ़ना ही चाहिए।
गांधीजी का यह सत्याग्रह हमारे देश में एक बिलकुल नया नैतिक हथियार जनता के हाथ में आया। गांधीजी ने उसका उपयोग करके दिखाया ।
इससे पहले जेल जाना अत्यन्त बदनामी का काम माना जाता था। समाज का मानस गांधीजी ने बदल दिया। सत्याग्रह करके जेल जानेवालों की प्रतिष्ठा समाज में बढ़ने लगी और सरकार की नजर में भी ऐसे आदमी की प्रतिष्ठा एकदम टूट नहीं जाती थी। सरकार अपने दिये हुए मान, इल्काब, उपाधि छीन सकती है, किन्तु ऐसे आदमी की नैतिक प्रतिष्ठा सरकार को भी मान्य करनी पड़ती है ।
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दक्षिण अफ्रीका का काम समाप्त करके गांधीजी स्थायी रूप से भारत आए । प्रारम्भ में राज्य-निष्ठ नागरिक होकर रहने लगे। संकट के समय सरकार को मदद देने को तैयार, सरकारी कानूनों का ईमानदारी से पालन करते, सरकार की इज्जत भी करते, फिर जब सरकार की ओर से अन्याय होता अथवा प्रजाहित का द्रोह होता तब गांधीजी सरकार के सामने अपनी नाराजगी जाहिर करते इतने से सुधार न हुआ तो सरकार का विरोध करते और इतने से भी कुछ न बने तो सत्याग्रह करते थे। इसमें सरकार के प्रति अप्रसन्नता जाहिर करते हुए भी निष्ठा का इन्कार नहीं होता । यह बात तत्वतः समझ लेनी चाहिए। सरकार जब कहती है कि "आप अमुक काम नहीं कर सकते । हमारी यह आज्ञा यदि आप न मानेंगे तो सजा भोगनी पड़ेगी, " तब यदि मैं सरकार को कहूं कि आपने मुझे दो आज्ञा दी हैं; मैं आज्ञाधारक नागरिक रहना चाहता हूं। आपकी पहली आज्ञा का पालन मैं कर नहीं सकता, इसलिए जेल जाने की आपकी दूसरी आशा में शिरोधार्य करता हूं। यदि राजी खुशी से मैं जेल सहन करूंगा तो सरकार कैसे यह कह सकती है कि इस आदमी ने आज्ञा का पालन नहीं किया है, राजनिष्ठा का द्रोह किया है, जब दो आज्ञा में से एक आज्ञा मान ली तब सरकार निष्ठा तो टूटी नहीं !
यह हो गई सत्याग्रह की मीमांसा । 'जब सरकार को ही अमान्य करने का वक्त आ जाए' तब अहिंसक आदमी क्या कर सकता है ? इसके लिए भी गांधीजी ने इलाज बताया है । वह है असहयोग का । उस समय असहयोग करने वाला नागरिक तत्वतः ऐसा कहता है, "हे सरकार ! तुम्हारा अन्याय असह्य है । इस लिए तुम्हारे प्रति जो मेरी निष्ठा थी सो मैं वापस खींच लेता हूं। सत्ता तुम्हारी है, ठीक लगे, सो कर लो। किन्तु मैं तो हृदय से तुमको सरकार मानने को तैयार नहीं हूं, इसलिए आज से मैं अपना सहयोग बन्द करता हूं।" यह भी एक तेजस्वी अहिंसक इलाज है ।
(२)
मैं पहली बार जेल गया। गांधीजी के गुजराती अखवार 'नवजीवन' के प्रमुख लेखक के रूप में। इस जेल के दौरान अद्भुत तरीके से एक मुस्लिम नेता और धर्म पंडित से मेरा पनिष्ठ परिचय हुआ ।
जब हम साबरमती जेल में थे तब हरिद्वार के नजदीक की एक मुस्लिम संस्था के विद्वान आचार्य मौलाना हुसैन अहमद मदनी खिलाफत आन्दोलन में सजा पाकर उसी जेल में रखे गये थे। अपने रिवाज के अनुसार वे लोग पांच बार दिन में नमाज पढ़ते थे। और उस नमाज में आमंत्रण देने के लिए जोर से अजान बोलते थे। जेलवालों ने उनको अजान पुकारने को मना किया। उसके खिलाफ सत्याग्रह करके उन्होंने उपवास शुरू किया। मुसलमानों के धार्मिक अधिकार के रक्षण में हिन्दुओं की मदद होनी चाहिए, यह मेरा सिद्धांत होने से मैंने सहानुभूतिपूर्वक उस उपवास में भाग लिया । फलस्वरूप मुझे भी सजा हुई। इस तरह १९४ | समन्वय के साधक