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________________ से मौलाना साहब को और मुझे जेल के एक अलग विभाग में साथ रखा। वहां हमारी अच्छी दोस्ती हई। सजा के तौर पर मेरी सारी किताबें मुझसे ले ली गई, और जेलर के पास रख दी गईं। केवल एक धार्मिक पुस्तक रखने की छूट थी। "सब धर्म मेरे हैं। किसी भी एक धर्म की पुस्तक पसन्द करने का मुझे अधिकार है। गीता की जगह मैं कुरानशरीफ़ मांगूं तो आप मना नहीं कर सकते," ऐसा झगड़ा करके कुरानशरीफ़ रखने की इजाजत मैंने प्राप्त कर ली। वह था कुरानशरीफ़ का मराठी अनुवाद । रोज में उसे पढ़ता और मौलाना साहब के पास से इस्लाम धर्म की बारीकी समझ लेता। मेरे मन जीवन का यह एक बड़े-से-बड़ा फायदा था। मदनी साहब अपनी विद्वता के कारण मक्का-मदीना तक अध्यापक होकर पहुंचे थे। वहां भी इस्लाम के एक निष्णात के तौर पर उनकी प्रतिष्ठा फैली हुई थी। इसीलिए उनके नाम के साथ 'मदनी' जुड़ा हुआ था । ऐसे धर्मनिष्ठ विद्वान के पास से इस्लाम की जानकारी मैं प्राप्त कर सका; यह खुदाताला की बड़ी मेहरबानी थी। पहली जेल-यात्रा का वर्णन मैंने एक छोटी-सी किताब 'उत्तर की दीवारें' में किया है। मुझे संतोष है कि यह पुस्तक गुजराती समाज को बहुत पसन्द आई। इसका हिन्दी अनुवाद गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा, राजघाट, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। २७:: चखें की उपासना सन् १९३० में जेलों के इंस्पेक्टर जनरल ने राजबंदी गांधीजी के साथ यरवदा में मुझे उनके साथी के तौर पर रखने का निश्चय किया। उसके बारे में जब अलग-अलग भावनाएं मन में उठीं तब मन का अस्वस्थ हो जाना स्वाभाविक था। पूज्य गांधीजी के साथ मैं अकेला पांच महीने रह सकू, यह धन्यभाग्य तो था ही, किन्तु उस सद्भाग्य के लिए मुझमें किसी भी तरह की योग्यता थी, ऐसा न मैंने उस वक्त माना था, न आज ही मानता हूं। यरवदा जेल में पूज्य बापूजी के साथ करीब पांच महीने मैंने बिताए। उन दिनों की सारी बातें मेरे लिए महत्त्व की हैं। वे सब मैंने एक पुस्तक में लिखी हैं। उस समय की हमारी जेल नमक का कानून तोड़ने से हमें मिली थी, इसलिए उस पुस्तक का नाम मैंने रखा 'नमक के प्रभाव से'। यह नाम पूरी तरह से सार्थक था फिर भी इस नाम के कारण ही इस किताब का प्रचार बहुत कम हुआ। यदि सीधा नाम रखा होता कि 'गांधीजी के साथ जेल-जीवन', तो अब तक उस किताब की कई आवृत्तियां हुई होतीं। उस किताब के पन्ने-पन्ने में गांधीजी का चरित्र-कीर्तन और मेरी प्रसन्नता भरी हुई है। __ जो व्यक्ति अपना जीवन गांधी-कार्य को अर्पण करता है, गांधीजी के विचारों के साथ जिसकी तदरूपता है उसकी कसौटी दो-तीन रूप से हो सकती है। एक, उसका जीवन धर्म-प्रधान होना चाहिए। दो, अस्पश्यतानिवारण के लिए अपनी पूरी शक्ति उसे लगानी चाहिए और तीन, वह खादीधारी तो होना ही चाहिए। मेरी खादी-भक्ति, चर्खा चलाने के बारे में मेरा आग्रह और चर्खे में छोटे-बड़े सुधार करने की मेरी यन्त्र-बुद्धि की कसौटी यरवदा जेल में बापूजी के सामने हुई थी। आगे चलकर जब महाराष्ट्र के एक यन्त्र-विशारद श्री काले ने एक नया चर्खा तैयार किया और पज्य बापूजी ने जाहिर किये हुए एक लाख रुपये के इनाम के लिए अर्जी भेजी तब वह चर्खा उपयोगी है या नहीं, उसे एक लाख का इनाम दिया जाय या नहीं, यह तय करने के लिए पूज्य बापूजी ने जानकारों की एक समिति बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १९५
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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